Friday, September 13, 2013

गीतकार श्री यश मालवीय जी की समीक्षा- उन्मेष के लिये

उन्मेष कविता संग्रह मेरे सामने है और मैं इसे काव्य के उन्मेष के रूप में ही देख रहा हूँ। संवेदना से लबरेज़, भाव बोध, समय सन्दर्भ, बदलती हुई दुनिया के रीति-रिवा़ज, रस-रंग, जमाने की चाल, विसंगतियाँ, टूटते-बिखरते मूल्य, सब कुछ एक जीते-जागते परिदृश्य के रूप में उद्घटित हो रहा है, मानोशी के पास अद्भुत एवं अप्रतिम रचनाकार मन है, जिससे वह समय के साथ थिर ताल में लहरें उठाती हैं और कविता की सीपियाँ और मोती बटोर लाती हैं, इन सीपियों और मोतियों की चमक अनेक बार चमत्कृत करती हैं। मार्मिकता उनका सबसे प्रिय बोध है, जहाँ वह सीधे मर्म पर अनुभूति की छुअन किसी फूल की तरह रख देती है। यह रचना ख़ास तौर पर देखें -

‘‘आज फिर शाम हुई,
और तुम नहीं आये,
आसमां की लाल बिंदी,
छूने चलीं भवें क्षितिज की,
 और कुछ झोंके हवा के,
ढेरों भीगे पल ले आये,
पर तुम नहीं आये ।’’
तुम्हारे नहीं आने का जो दर्द है, वह प्रकृति से एकरूप हो कर जैसे हर विरही मन का सच हो जाता है। यह भाव संवेदना शीर्ष कवयित्री महादेवी के मानस में सबसे अधिक साकार होती रही है, विशेषतः जब वो कहती हैं -
‘‘विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
उमड़ी कल थी मिट आज चली
मैं नीर भरी दुःख की बदली’’
मुझे व्यग्तिगत रूप से लगता है कि इस प्रकार के दुःख-दर्द और टीस की भी एक गरिमा होती है और इस गरिमा को कवयित्री ने रेशा-रेशा जिया है। बात अनकही शीर्षक कविता में वह कहती हैं -
‘‘हाथ थाम कर निकल पड़े हम
साथ अजाना कठिन डगर थी
कभी धूप को मुँह चिढ़ाया
कभी छाँव की पूँछ पकड़ ली
कच्चे-पक्के स्वाद निराले
आधा-आधा जिन्हें चखा था ’’
‘छाँव की पूँछ' ये अभिव्यंजना ही लगभग अभिभूत कर देने वाली है और बड़ी अपनी सी बात लगती है, जिसके लिए कभी एक शायर ने कहा था -
‘‘कहानी मेरी रुदादे जहाँ मालूम होती है
जो सुनता है उसी की दासतां मालूम होती है’’
मानोशी जी के पास कविता के विविध रंग हैं उनके पास गीत की संवेदना है, तो ग़ज़ल का व्याकरण भी है, कविता की समकालीनता है तो दोहों का रस परिपाक भी है और जापानी छंद हाइकु की सिद्धि भी है। इस प्रकार वह काव्य के सारे रंगों में सहज ही निष्णात हैं। कनाडा में रहते हुए उन्हें अपना भारत लगातार टेरता है, आवाज़ देता है। उनका काव्य मन छटपटाता है। शायद इसी छटपटाहट में ग़ज़ल का यह मतला संभव हुआ है -
‘‘कोई ़खुशबू कहीं से आती है
मेरे घर की ़जमीं बुलाती है’’
लेकिन आदमी तो आदमी ठहरा। समझौतों के साथ जी लेना कई बार उसकी नियति बनती है। जो संस्कार होते हैं वही आदतें होती हैं, जो आदतें होती हैं वही संस्कार भी हो जाते हैं। जिंदगी इनके बीच घड़ी के पेंडुलम सी डोलती है। जहाँ जिंदगी ही एक आदत हो जाए वहाँ क्या कहिएगा। अशआर आकार लेते हैं -
‘‘जिंदगी इक पुरानी आदत है
यूँ तो आदत भी छूट जाती है
आप होते हैं पर नहीं होते
रात यूँ ही गुज़रती जाती है
जाने क्या क्या सहा किया हमने
 पत्थरों पर शिकन कब आती है’’
मैं पूरी ईमानदारी से यह बात कह रहा हूँ कि मैंने इस संग्रह से गुज़र कर निश्चित ही एक समृद्धि हासिल की है। यह विश्वास है कि उन्मेष वक्त के माथे पर अपने हस्ताक्षर छोड़ जायेगा।

समीक्षक -
यश मालवीय
इलाहाबाद

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