Monday, February 20, 2006

अपने-पराये

प्रत्यक्षा का लेख पढ़ कर याद आ गयी 'नातबॊऊ' की। मां बताती हैं कि नातबॊऊ बालविधवा थीं। उस ज़माने में विधवायें बाल काट लेती थीं, सो उनके भी बाल नहीं थे, सफ़ेद धोती पहनती थीं और निरामिश खाती थीं। मां का परिवार खूब बड़ा था। मेरे परनानाजी और उनके दोनों बेटे और उनके परिवार सब एकसाथ ही रहते थे। घर में आने जाने वालों की भी भीड़ लगी ही रहती थी। रिश्ते से नातबॊऊ कोई भी नहीं थीं उस परिवार की। मां बताती हैं कि वो किसी दूर के रिश्तेदार की रिश्तेदार थीं, जिनके पति बचपन में ही भगवान को प्यारे हो गये थे और कुछ पेन्शन छोड गये थे उनके लिये। वो अनपढ़ थीं और इसी घर में आकर ठहर गयीं थीं। घर में बडों से ले कर बच्चों तक सभी उन्हें नातबॊऊ कहते थे। नातबॊऊ घर का बहुत सारा काम करती थीं, और बच्चों को खूब डाँटती थीं। सब उन्हें घर का सदस्य ही मानते थे। मां के चाचाजी बाद में डाक्टर बने। वो उन्हें मां सा सम्मान देते थे। नातबॊऊ के बुढा़पे में उनकी देखभाल उन्होंने ही की और नातबॊऊ के देहांत के बाद हर साल वो नातबॊऊ की बरसी करते रहे। नातबॊऊ के क़िस्से मैंने खू़ब सुने हैं। वो दिल की बडी साफ़ थीं मगर हमेशा बोलती रहती थीं। कोई तनख्वाह नहीं लेती थीं, मगर खाना-कपडा़ और रहने के लिये छत उनकी तनख़्वाह (ये शब्द ही गलत है शायद इस मामले में) थी। कभी-कभी वो तीर्थ को निकल जाया करती थीं तो मेरी मां के चाचा जी से पैसे माँगती थीं कि " हेमू, मैं तीरथ को जाऊँगी, कुछ पैसे दे दे,"। वो अकेले ही निकल पडती थीं तीरथ को। कहते हैं एक बार वो दो दिन में ही लौट आईं। सब ने पूछा, क्या हुआ नातबॊऊ? तो वो मेरी नानी को फुसफुसा कर बताने लगीं, "बेटा, मैं खूब सारा सोना ले कर आयी हूं, तुम लोगों के खूब गहने बन जायेंगे"। तब मां के चाचाजी ने पूछा था, "कैसे नातबॊऊ, फिर क्या कबाड़ा कर के आयी हो?" नातबॊऊ ने बताया था कि वो जब तीरथ को जा रहीं थीं तो किसी स्टेशन पर उन्हें दो लडके मिले जिन्होंने उन्हें २ किलो का सोने का बाट दिया और कहा कि बदले में उनकी चूडियाँ वो दे दें। और उन्होंने अपनी चूडियों के बदले दो किलो के सोने की बाट ले ली थी। सब को पता था कि क्या हुआ है पर फिर भी नातबॊऊ की तसल्ली के लिये, उस सोने के बाट की जाँच करवाई गयी थी जो कि कहने की क्या ज़रूरत है कि पीतल साबित हुआ था। मगर 'तुम लोगों के बहुत सारे गहने बन जायेंगे' में उनका नि:स्वार्थ प्रेम झलकता है। मां कहती हैं कि कभी-कभी वो घर के किसी सदस्य से गुस्सा हो कर घर से चली भी जाती थीं मगर एक दिन बाद फिर आ जाती थीं। ऐसा नहीं कि उनका कोई रिश्तेदार नहीं था मगर वो इसी परिवार से बँध गयीं थीं। ये सब सुनती हूं मां से तो कहानी सा लगता है अब। मगर ये सब १९४०-४५ के क़रीब की बात रही होगी। नातबॊऊ का देहांत ६० के दशक में कभी हुआ। मां खूब रोईं थीं तब। उनकी अन्त्येष्टि मां के चाचा जी ने की थी। आज भी क्या ऐसे लोग मिलते हैं जिनका अपना कुछ भी नहीं होता और जो होता है वो दूसरों के लिये दे दें वो। और ऐसे परिवार भी कहाँ होते होंगे अब जो किसी पराये को इस तरह अपना लें? सोच कर अब बहुत हैरानी होती है मगर ये कोई कहानी नहीं है, इन्सानी रिश्तों और भावनाओं की सच्चाई है।

4 comments:

अनूप शुक्ल said...

हमेशा इस तरह के लोग पाये जाते हैं। समय के साथ उनका अंदाज बदल जाता होगा।

Pratyaksha said...

हमेशा ऐसे लोग होते हैं लेकिन हमेशा कम ही होते हैं. आजकल तो और भी कम . कल्युग जो है

Tarun said...

aisa laga jaise koi bangali upanyas ya kehani par reha hoon. Mene bahut paren hain banagli writers ka likha hua....unme aksar koi na koi aisa ek character jaroor hota tha/hai.

Dawn said...

वाह ! खूब भालो!!!
बहुत ही सही लगी....और खुशी भी के मुझे आपसे बहुत कुछ सिखने मिलेगा....यदि, आप सहायता करें तो....आगे भी आते रहेंगे यहाँ....
शुकिया !