Wednesday, May 10, 2006

कुछ अपने मन की

अब घर पर रहने की आदत होने लगी है। जब शुरु में नया नया घर पर रहना शुरु हुआ था, तब सारा दिन खिड़की से बादलों और पहाड़ों को निहारते हुये गुज़र जाता था। जन्मों की इच्छा कि घर पर आराम करूँ पूरी हो रही थी। फिर कुछ महीनों बाद बड़ी बोरियत होने लगी। कम्प्यूटर और टी.वी. के सामने बैठना भी समय बर्बाद ही लगने लगा। तो यहाँ नौकरी की कोशिश करनी शुरु की। मगर सिर्फ़ पार्ट टाइम ही कुछ मिल पाया। मैंने इन लोगों को माफ़ कर दिया ये सोच कर कि इन्हें नहीं पता मुझे नौकरी न देकर यहाँ, इन्होंने क्या खोया है। मेरे पास आंटेरियो में पढाने का लाइसेंस है, यहाँ का नहीं, तो उसे हासिल करने में कुछ महीनों से एक साल भी लग सकते हैं। अजीब प्रथा है इस देश की, हर प्रदेश में पढ़ाने का अलग से लाइसेंस लेना पड़ता है। तो अब तो आदत पड़ने लगी है घर में रहने की। पहले सप्ताहांतों का इंतज़ार घर पर रह कर आराम करने के लिये रहता था, अब बाहर घूमने जाने के लिये रहता है। पिछले शनिवार को ज़ाकिर हुसैन का प्रोग्राम देखने गयी। बहुत सालों बाद संगीत में सचमुच खो जाना हुआ। उस्ताद सुल्तान खां की सारंगी और साथ उ. ज़ाकिर हुसैन का तबला। बाद में निलाद्री कुमार का सितार मन को किसी और ही दुनिया में ले गया। अभी यहाँ प. जसराज के शिष्य, हेमंग मेहता आये हुये हैं। सोचा इसी बहाने कुछ संगीत साधना की जाये। वो एक महीने यहाँ रहेंगे और हर सप्ताह संगीत की क्लास लेंगे। देखते हैं। जाने की इच्छा तो बहुत है उनके क्लास में। ९ महीने होने को आये इस शहर में। प्राकृतिक दृश्यों ने मन मोह रखा है। आजकल सड़क से गुज़रती हर गाड़ी फूलों से सजी शादी की गाड़ी लगती है। सड़क के किनारे खड़ी हर गाड़ी पर फूलों की पँखुड़ियाँ गिरी होती हैं। मगर उस पुराने शहर के लिये अभी भी मन उदास हो जाता है कभी कभी। कोई एक महीने पहले वहाँ भी हो कर आये। हर उस जगह जहाँ हम जाया करते थे, घूम कर आये। वो फ़ूड कोर्ट, वो दुकानें, वो सड़कें...सब इतनी अपनी लगीं। ख़ैर..यही ज़िन्दगी है, जो रुकती नहीं और हम पुरानी खुशनुमा यादों को कभी कभी याद कर लेते हैं और आगे चलते जाते हैं। आगे की मंज़िल कहाँ होगी कौन जाने...

6 comments:

अनूप शुक्ल said...

मनमाफिक काम मिलने करने के लिये शुभकामनायें। फूलों से लदी गाड़ी का फोटो भी
दिखाया जाय तो कुछ बात बने!

Sunil Deepak said...

जीवन चलता ही रहता है, यही उसकी खूबी भी है और बुराई भी. यह इंतजार के दिन भी बीत जायेंगे और फिर जब काम के झँझटों में साँस लेने की फुरसत नहीं मिलगी तभी इन्हीं दिनों को आप "वो खुशनसीब दिन" कह कर याद करेंगीं. दूआ है कि ऐसा जल्दी ही हो.
सुनील

Udan Tashtari said...

'इन्हें नहीं पता मुझे नौकरी न देकर यहाँ, इन्होंने क्या खोया है।'
:)
हमारी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं।

समीर लाल

RC Mishra said...

जब पढाने का मौका नही मिल रहा है तो,पढने के साथ कमाने का बहुत अच्छा मैका है!

आखिर संश्लेष्णात्मक रसायन का अध्ययन और उसमे पारंगत होना कोई मामूली बात नही है।
विश्वास न हो तो एक CLICK करके देख लीजिये।

Pratik Pandey said...

आपने रसायन का संगीत काफ़ी सुना है, अब थोड़ा संगीत के रसायन का आनन्द लीजिए।

ई-छाया said...

मानसी जी, आपको काम अवश्य एवं शीध्र मिले ऐसी शुभकामनायें