मेरे 'नहीं' के आगे लिखने से पहले बहुत लोगों ने बहुत कुछ लिखा। विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को मेरी बात सही लगी होगी। 'नहीं' क्यों कहा मैंने। क्या सच चमक-दमक नहीं है यहाँ? है तो..पर क्या ये 'चमक-दमक' ही रोक कर रख लेती है हमें ? देश के प्रति गद्दारी का दोष लगाने वाले भारत में रह रहे भारतीय, प्रवासी भारतीयों को कहीं एक अलग नज़र से देखते हैं। जहाँ अजीब मानसिकता के चलते भारत में रह रहे भारतीय का अपने किसी संबंधी के विदेश में रहने से मान ऊँचा होता है वहीं दूसरे लोगों का शायद ईर्ष्या का कारण। और इसकी एक वजह शायद ये सोच कि विदेश में डालर या पैसा ज़्यादा कमाया जाता है। सच भी है, अगर तुलना की जाये तो यहाँ से भारत का उपार्जन कम लगता है, मगर यहाँ के खर्चे और हर चीज़ का मूल्य आदि की तुलना की जाये तो बात वही हो जाती है, हाँ, मगर यहाँ बेहतर होता है जीवन...जीवन नहीं, जीवन जीने के लिये जो कठिन राह पर से हो कर हम यहाँ चलते हैं, कहीं जा कर लगता है कि सफ़ल हो गया वो परिश्रम। जिस तरह हर अंधेरी सुरंग के अंत में प्रकाश होता है, ठीक वैसे ही।
सुविधायें...सिर्फ़ सुविधायें कह देने से ऐसा लगता है जैसे किसी ने मुफ़्त में, दया कर के हमें भीख दे दी हो और हम उस भीख के आदी हो गये हैं। मगर अजीब बात ये है कि ये ही सुविधायें क्या भारत में उपलब्ध नहीं हो सकतीं? मुझे आबादी और सड़क की भीड़ से कोई परेशानी नहीं है, ए.सी. न हो तो पंखे से काम आसानी से चल जाता है, उसी तरह तो बड़े हुये हैं साहब। खाना पीना तो भारत में ज़्यादा अच्छा मिलता है, फिर ?
कुछ उदाहरण देना चाहूँगी। दो साल पहले एक दुर्घटना में मेरा घुटना बुरी तरह टूट गया था। शल्य-क्रिया के बाद एक महीने तक काम पर नहीं जा पायी। नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थी इसलिये बैसाखियों के साथ ही काम पर गई। मगर काम पर ले कौन जाये? पति की अपनी नौकरी थी। यहाँ के ट्रांसपोर्ट कंपनी को फ़ोन किया। पता चला कि वो आम बस टिकट के भाड़े पर ही टैक्सी भेजेंगे और वो टैक्सी मुझे घर से काम, काम से घर यहाँ तक कि अस्पताल फ़ीज़िओथेरापी के लिये भी ले जाया करेगा। इस तरह मैंने छ: महीने ट्रांस-व्हील (ऐसी सरविस का यही नाम है यहाँ) की मदद ली। हमारी पूरी चिकित्सा, शल्य-क्रिया आदि के लिये एक पैसा भी नहीं लगा, ये देश की 'सुविधा' ने ही उपलब्ध कराया। हाँ, ये और बात है कि देश होता तो शायद मैं ज़्यादा दिन की छुट्टी ले पाती, घर में नौकर चाकर होते तो कोई काम खु़द नहीं करना पड़ता आदि आदि...मगर क्योंकि यहाँ ऐसा हो पाना मुश्किल है तो हमें ये 'सुविधा' उपलब्ध कराई जाती है। जब मैं घर से निकल नहीं पाती थी तब भी सारा काम सिर्फ़ एक फ़ोन काल की दूरी पर था। चाहे बिल भरना हो या बैक का कोई काम हो...ये सब चीज़ें अब शायद भारत में भी होने लगी हों और अगर नहीं तो होनी चाहिये। देश में ऐसी क्या कमी है कि ये सब 'सुविधायें' वहाँ नहीं उपलब्ध करायीं जा सकतीं?
चलिये ट्रैफ़िक की बाते करें। क़तारों मॆं अपनी लेन में चलती गाडियों को देख कर अपने देश की ट्रैफ़िक की याद आती है। इस बार जा कर देखा कि कलकत्ता में नई सड़कें बनी हैं। कुछ चीज़ें ऐसी देखीं जो कभी नहीं देखीं थी। हर सड़क को लेनों में बाँटती हुई सफ़ेद लकीर पर लगे हुये थे जलती बुझती लाल बत्तियाँ। वाह! लगा देश ने सच तरक्की की है और फिर देखा तीन लेन की सड़क पर गाड़ियों की चार क़तारें। कोई भी गाड़ी कहीं से भी जा रही है और ट्रैफ़िक के नियमों का कोई पालन नहीं। ये अनुशासनहीनता क्यों? क्या करना चाहिये कि ये अनुशासन लागु हो पाये? क्यों नहीं हो पाते नियमों के होते हुये भी ये नियम लागु? कहाँ है कमी? इतने पुराने ढर्रे को बदलना मुश्किल है...मगर कहीं तो कुछ हो बदलाव। सुंदर 'माल' बने हैं देश में। साफ़ और चमकीले। मुझे आशा है कि ये नये 'माल' पुराने होने पर भी यूँही बने रहेंगे। सरकारी दफ़्तर की शिकायत नहीं करना चाहती। वैसे शिकायत ही किये जा रही हूँ। घंटों लाइन में खड़े रह कर भी, कोई जान-पहचान वाला आगे जाकर अपना काम करवा जाता है। हम रह जाते हैं पीछे और फिर काउंटर पर उन अधिकारियों के विरक्त चेहरे से निपटना।
चलिये, अगर इन सब चीज़ों को नज़र अंदाज़ कर दिया जाये, क्योंकि जहाँ रहते हैं वहाँ के सिस्टम की आदत हो ही जाती है तो फिर क्या ज़रूरी वजह है वो कि हम नहीं लौट पाते अपने देश? हम यहाँ आ कर बड़ी मेहनत से, कठिन राह पर से हो कर गुज़रते हैं। उस राह पर चलते हुये कुछ सपने देखने लगते है। एक तरह से बडे़ होते हैं हम यहाँ फिर से, और फिर जब वो सपने पूरे होने लगते हैं तो हम उन्हें छोड़ कर कहाँ जायें, ये एक नया बसेरा होता है हमारे लिये। अपने बच्चों की दुनिया यही हो जाती है और फिर उसे उजाड़ना भी संभव नहीं होता। हाँ, अपने देश के लिये करने की चाह को जो ईमानदारी से चाहे वो ज़रूर पूरा कर सकता है। भारत में ज़रूरतमंदों को, किसी स्कूल को या किसी संस्था को डोनेशन दिया जा सकता है और दिया जाता है। सुनामी या किसी और विपदा के समय या यूँ भी, एन.आर.आई. बड़ी संख्या में सहायता करने की कोशिश करते हैं। क्या इस से इंकार है किसी को? हाँ अगर ये कहा जाये कि विदेश में रह कर हम भारत के लिये शारीरिक रूप से वो नहीं कर पाते जो हम वहाँ रह कर कर पाते तो क्या वहाँ रह रहे हमारे भाई कुछ कर पा रहे हैं? जो शहर आ गये वो अपने गाँव को भूल गये। जिनमें ताक़त है वो और पैसे बनाने में लगे हैं। कालेज के दिनों में माइग्रेशन सर्टिफ़िकेट के लिये ५० रुपये का घूस क्यों नहीं भूलता मुझे आज भी? नहीं देती ५० रुपये तो ऐड्मिशन रुक जाता, और किस से करें इस बात की शिकायत? कैसे बदलें हम व्यवस्था वहाँ की?
ये सब कहने के बाद भी देश के लिये प्यार कब कम होता है? जैसा कि कहते हैं, दिल है हिन्दुस्तानी। देश हमारा है, अगर कोई तीसरा कुछ कहता है तो फिर प्रतिवाद करने से भी नहीं चूकते हम। पता नहीं, हम एन.आर.आई की यही अजीब स्थिति होती है, न यहाँ के हो पाते हैं दिल से पूरे न शरीर से वहाँ के...वैसे आज जो ये विचार हैं मेरे क्या समय के साथ ऐसे ही रहेंगे? आज ही अनूपदा ने इस विषय पर बात करते हुये मुझसे कहा कि समय के साथ हमारी सोच बदल जाती है। आज हम जिसे सही समझते हैं वो शायद कल सही न लगे...क्या पता...चलिये आज यहीं खत्म करती हूँ। अगली बार किसी और विषय पर..
9 comments:
मानोषी :
अब जब तुम नें लेख में नाम ले ही लिया तो सोचा सब से पहले टिप्पणी भी कर दें ।
कुछ अलग अलग विचार दे रहा हूँ, सब का कहीं न कहीं तुम्हारी लेख में लिखी किसी बात से सम्बन्ध है:
- आदमी की सोच उस के उस समय तक के अनुभवों और जानकारी का निचोड़ होती है । स्वाभाविक है कि वह समय के साथ बदल सकती है और बदलनी भी चाहिये । 'सोच' कभी 'सही या गलत' नहीं होती।
- किसी खाली स्थान पर नयी बस्ती बनाना आसान होता है । सैकड़ों वर्ष पुरानें मोहल्ले की जगह नई बस्ती बनाना मुश्किल ।
- हज़ारों वर्षों से चली आ रही परम्पराओं और आदतों को बदलनें में समय लगता है । मनुष्य की स्वाभाविक प्रव्रत्ति हमेशा से 'परिवर्तन' के खिलाफ़ रही है।
- भ्रष्टाचार का सीधा सम्बन्ध पेट की भूख और 'मूल ज़रूरतों' की पूर्ति से रहा है ।
- व्यवस्था से समझौता कर के अपनें लिये 'राह निकाल लेना' हमेशा सरल विकल्प रहा है , व्यवस्था को बदलनें की कोशिश की क्षमता हर किसी में नहीं होती ।
- यदि आप में पूरी व्यवस्था को चुनौती दे कर उसे बदलनें की क्षमता और ऊर्जा न भी हो तो भी उस के एक छोटे से भाग को बदलनें का प्रयास कम सराहनीय नहीं है । असुविधा तो होती है लेकिन एक अज़ब सा आत्मसंतोष भी मिलता है।
- यदि आप को मालूम है कि दावत में हर व्यक्ति के लिये खाना है तब 'कतार' में लगना नहीं अखरता । परीक्षा की घड़ी तब आती है जब आप को यह पता चले कि 'सब के लिये पर्याप्त खाना नहीं है' । नियमों का निर्वाह 'अभाव' की अवस्था में कठिन होता है ।
- समस्याओं को isolation में नहीं देखा जा सकता । लगभग हर समस्या या तो किसी दूसरी समस्या का कारण है या उस पर निर्भर करती है ।
अभी बस इतना ही ....
"हरि अनंत, हरि कथा अनंता,
जेही बिधी देखहिं, कहें सब संता.""
तो जो जैसा देखता है, वो वैसा व्यक्त कर देता है. अब मै हिन्दुस्तान गया, तो मुझे तो रेल्वे मे कहीं भी घूसखोरी नज़र नही आई. मै तो बड़ा इम्प्रेस हुआ. अब कुछ जगहों पर वहां सुधार बाकी है तो कुछ जगहों पर यहां...सब व्यवहारिक है. कोई फ़रक नही पड़ता कि हम कहां हैं. जहां भी हो, किस्मत का खेला है, मजे करो. मै तो इसी नतीजे पर आ पाया हूँ. क्या मालूम, क्या सही है क्या गलत. मगर शुभकामनाऎं दोनों छोर के रहवासियों के साथ है.
--समीर लाल
रजनी नें ध्यान दिलाया तो सोचा स्पष्टीकरण दे ही दें (इस से पहले कि और लोग पूछें):
जब मैनें यह कहा कि "सोच कभी सही या गलत नहीं होती " मेरा तात्पर्य 'नैतिक मूल्यों से नहीं था' ।
मेरा कथन 'सिर्फ़ मानोषी के लेख के सन्दर्भ में इस विषय पर 'उस की सोच के बारे में था' । मैं भी कुछ वर्ष पहले ऐसा ही सोचता था लेकिन फ़िर 'सोच' में बदलाव आया ।
अनूपदा,
भारतीय होते हुयेऔर दूर रह्ते हुये अपने देश के बारे में कुछ भी सुनना भाता नहीं, आप या कोई और क्यों, मैं भी इसी चीज़ की शिकार हूँ। आपकी टिप्पणियों पर ...
१)सैद्धांतिक रूप से आपकी बातें बिल्कुल सही, आइडियल लगती हैं।
२) सैकड़ों वर्ष पुरानी बस्ती को उखाड़ने नहीं कहा जा रहा। किसी बिल्कुल अव्यवस्थित कक्षा में भे एक कड़ा और समझदार शिक्षक अनुशासन लागु करना सकता है और कक्षा फिर व्यवस्थित हो सकती है। चाहे पूरा स्कूल बिगड़ा हुआ हो, नया प्राचार्य फिर भी उसे बदल सकता है।
३)हाँ 'परिवर्तन' के खिलाफ़ वाली बात सही है, मगर साधनों के होने पर और कोशिश करने के बाद अच्छे परिणाम आने पर वो परिवर्तन अच्छा लगता है। कोशिश तो करें।
४) भ्रष्टाचार का संबंध मूल ज़रूरतों से रहा है...वाह! तो जब ज़रूरतें मिट जायें तो फिर भी भ्रष्टाचार बना रहे । देखा गया है कि बड़े ओह्दे पर काम करने वाला, ज़्यादा कमाने वाला भी भ्रष्टाचार है, तो इसका मतलब "मूल ज़रूरतों" से ज़्यादा, "लोभ" भ्रष्टाचार का कारण है।
५)हाँ, सच व्यवस्था को बदलना तो कठिन है ही, पर मूल ढाँचे को बदलने की कोशिश के साथ ही पूरी व्यव्स्था भी धीरे धीरे बदली जा सकती है। फिर वही स्कूल वाला उदाहरण देना चाहूँगी।
६)हाँ, हम अकेले का योगदान ज़रूर मायने रखता है, मगर याद रखें जब फ़ल नहीं मिलता तो आदमी पीछे हट जाता है, सिर्फ़ यही नहीं हम में से कोई एक ही गांधी होगा, वरना हम सब तो साधारण इंसान ही हैं। और जिनके पास पावर है वो भी तो भ्रष्टाचार के शिकार हैं।
७)ट्रैफ़िक नियमों का निर्वाह के साथ दावत वाली बात जमी नहीं। कौन है भूखा यहाँ? ये सिर्फ़ अनुशासनहीनता है ।
८)सही है, किसी भी समस्या का हर अगली समस्या के साथ कोई रिश्ता होता है। और उन समस्याओं को देशवासी या एन.आर.आई कैसे हल करें? क्या एन.आर.आई. के भारत लौट जाने से ही ये समस्या हल हो जाती हैं?
और आख़िर में, सैद्धंतिक बातें सच्ची होती हों, हम कहते भी हों, मगर क्या अमल में लाते हैं?
समीर आप लकी हैं।
--मानोशी
मानसी जी,
आपका लेख और टिप्पनियों पर आपका जवाब दोनों अच्छे लगे। साधुवाद।
सोचा था , ये वाद-विवाद का मंच नहीं है इसलिये इस चर्चा को यहीं छोड़ दिया जाये लेकिन फ़िर रहा नहीं गया । एक और लम्बा ज़वाब हाज़िर है | ये इस 'लेख' पर मेरी आखिरी टिप्पणी होगी । यदि ज़रूरत हुई तो कहीं और लिखेंगे.
तुम्हारी टिप्पणी का पोस्ट मार्टम कर रहा हूँ , मेरे कमेंट्स >>> के बाद हैं :
भारतीय होते हुयेऔर दूर रह्ते हुये अपने देश के बारे में कुछ भी सुनना भाता नहीं, आप या कोई और क्यों, मैं भी इसी चीज़ की शिकार हूँ। आपकी टिप्पणियों पर ...
>> एक बात मैनें सीखी है कि
'दुनिया में अधिकांश समस्याएं इसलिये हैं कि हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि 'देश और धर्म कभी गलत नहीं होते ।
मैं इस बात को दिल से मानता हूँ । यदि हम अपना दिमाग खुला रखें और यह मान कर चलें कि बदली परिस्थितियों में देश और धर्म भी गलत हो सकते हैं तो विश्व की काफ़ी समस्याओं का निदान अपनें आप ही निकल आयेगा ।
<<
१)सैद्धांतिक रूप से आपकी बातें बिल्कुल सही, आइडियल लगती हैं।
२) सैकड़ों वर्ष पुरानी बस्ती को उखाड़ने नहीं कहा जा रहा। किसी बिल्कुल अव्यवस्थित कक्षा में भे एक कड़ा और समझदार शिक्षक अनुशासन लागु करना सकता है और कक्षा फिर व्यवस्थित हो सकती है। चाहे पूरा स्कूल बिगड़ा हुआ हो, नया प्राचार्य फिर भी उसे बदल सकता है।
>> कक्षा एक 'नियंत्रित वातावरण' है , उसे बदलना आसान है । सम्पूर्ण व्यवस्था को बदलना एक बेहद 'जटिल' समस्या । ये नहीं कह रहा कि उसे बदलना सम्भव नहीं है , एक छोटे छोटे भाग को ले कर ही पूरा 'सिस्टम' बदलेगा । लेकिन उस में समय लगता है । <<
३)हाँ 'परिवर्तन' के खिलाफ़ वाली बात सही है, मगर साधनों के होने पर और कोशिश करने के बाद अच्छे परिणाम आने पर वो परिवर्तन अच्छा लगता है। कोशिश तो करें।
>> कोशिश तो करनी ही है । मैनें भी यहा कहा था । <<
४) भ्रष्टाचार का संबंध मूल ज़रूरतों से रहा है...वाह! तो जब ज़रूरतें मिट जायें तो फिर भी भ्रष्टाचार बना रहे । देखा गया है कि बड़े ओह्दे पर काम करने वाला, ज़्यादा कमाने वाला भी भ्रष्टाचार है, तो इसका मतलब "मूल ज़रूरतों" से ज़्यादा, "लोभ" भ्रष्टाचार का कारण है।
>> भ्रष्टाचार 'मूल ज़रूरतों" का और "लोभ" दोनों का हो सकता है । लेकिन देश का वह भ्रष्टाचार जिस का हम पर असर पड़ता है और (जो हमें यहां नहीं दिखता ) उस का जन्म अक्सर 'मूल ज़रूरतों" की पूर्ति न होने से होता है । ऊँचे ओहदों/स्तर पर होनें वाला 'लोभ भ्रष्टाचार' तो भारत और यहां बराबर ही है । <<
५)हाँ, सच व्यवस्था को बदलना तो कठिन है ही, पर मूल ढाँचे को बदलने की कोशिश के साथ ही पूरी व्यव्स्था भी धीरे धीरे बदली जा सकती है। फिर वही स्कूल वाला उदाहरण देना चाहूँगी।
>> अवश्य , लेकिन इस में समय लगता है । बदलाव आ रहा है , सुधार हो रहे हैं । रेलवे में होनें वाला भ्रष्टाचार कम हुआ है , रेल में आरक्षण आसान हो गया है , समीर लकी नहीं था । :-) <<
६)हाँ, हम अकेले का योगदान ज़रूर मायने रखता है, मगर याद रखें जब फ़ल नहीं मिलता तो आदमी पीछे हट जाता है, सिर्फ़ यही नहीं हम में से कोई एक ही गांधी होगा, वरना हम सब तो साधारण इंसान ही हैं। और जिनके पास पावर है वो भी तो भ्रष्टाचार के शिकार हैं।
>> आप अपना योगदान इसलिये कर रहें है कि आप को उस में 'उसी समय' आनन्द मिल रहा है । आप का फ़ल तो वही हुआ । जानता हूँ गीता से आइडिया कौपी किया है, लेकिन कुछ कुछ अपनें अनुभव से भी कह रहा हूँ । <<
७)ट्रैफ़िक नियमों का निर्वाह के साथ दावत वाली बात जमी नहीं। कौन है भूखा यहाँ? ये सिर्फ़ अनुशासनहीनता है ।
>>भूखा है हर कार चलानें वाला और खाना है 'चलनें के लिये बनाई गई 'सड़क' जो कि सब के लिये पर्याप्त नहीं है । अगर पर्याप्त 'लेन' हों और चलानें वाले को मालूम हो कि अपनी 'लेन' में नियमों का पालन करते हुए वह समय से दफ़्तर पहुंच जायेगा तो शायद अनुशासनहीनता भी कम देखनें को मिले । वैसे यहां भी ट्रैफ़िक जाम होनें पर लोगों को नियम तोड़ते देखा है । <<
८)सही है, किसी भी समस्या का हर अगली समस्या के साथ कोई रिश्ता होता है। और उन समस्याओं को देशवासी या एन.आर.आई कैसे हल करें? क्या एन.आर.आई. के भारत लौट जाने से ही ये समस्या हल हो जाती हैं?
>> नहीं वह कोई समस्या का हल नहीं होगा । <<
और आख़िर में, सैद्धंतिक बातें सच्ची होती हों, हम कहते भी हों, मगर क्या अमल में लाते हैं?
>> तुम ही ने कहा था कि हर आदमी गांधी नहीं हो सकता । लेकिन व्यवस्था को बदलनें के लिये ऐसा ज़रूरी भी नहीं है । गांधी तो बस १ ही चाहिये । लेकिन बहुत से ऐसे लोग चाहियें जो उस एक गांधी में विश्वास कर सकें और 'कतरा कतरा' व्यवस्था को बदलनें का प्रयास करें । फ़ल उनके जीवन में मिले या न मिले । <<<
समीर आप लकी हैं।
>> हां समीर आप लकी हैं , मानोशी का इतना लम्बा ज़वाब नहीं सुनना पड़ा । :-)
>>स्नेह
>>अनूप(दा)
ब्लाग पर पहली बार आया अच्छा लिखा है आप ने
मनोषी जी:
आपकी हताशा और निराशा जायज है । किन्तु हम इस बात को नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते की, देश को बनाने का काम आज़ादी के पहले १५ वर्षो के बाद हुआ ही नहीं । अखिल भारतीय स्वप्न जो स्वतन्त्र्ता आन्दोलन के दौरान बना था, वो शास्त्री जी के बाद बन्द हो गया । उसके बाद लूट-मार शुरू हो गयी । उसका परिणाम आ रहा है । इसे बिगाडने में हमारा योगदान नहीं, पर हमने उसके बिगडने पर कोई हलचल भी नहीं की, भले ही वह कितनी ही छोटी क्यों न हो । अनुशासन कर्तव्यबोध से आता है, जो निरन्तर खत्म हो रहा है । मेरी द्र्ष्टि में सभी को थोडी तक्लीफ़ उठाकर बद्लाव के लिये प्रयास करने होंगे । जहाँ हम पहुँच गये हैं, वहाँ इसके सिवाय कोई विकल्प दिखाई नहीं देता । जो विकल्प है उसे हम अपना ही चुके हैं, अप्रवासी बनकर ।
अनूप की बात 'बचपन से ही सिखाया जाता है कि 'देश और धर्म कभी गलत नहीं होते ' ही बड़ा सच लगती है मुझे तो। यही वह भाव है जो सात समुन्दर पार आपको अजीब सी ग्लानि में मारे दे रहा है। मैं तो रोज अपने विद्यार्थियों को देश, राज्य (सरकार आदि) और धर्म (तथा शिक्षा) पर सवाल खड़े करने की प्रेरणा देने का प्रयास करता हूँ और महसूस करता हूँ कि यह काम बड़ी देशभक्ति का काम है
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