आज एक 'कोर्स' खत्म हुआ। अपने को आज के व्यवस्था लायक क़ाबिल टीचर सिद्ध करने की कोशिशों में से एक और पूरा हुआ।'आप आनर्स ग्रेड लेकर पास हुई हैं', पढ़ कर आज भी स्कूल में अच्छे अंक आने पर जो खुशी होती थी बिल्कुल वैसा ही महसूस हुआ। एक और कोर्स के लिये रजिस्टर किया है। और जाने अभी और भी कितने और कोर्स करने होंगे। एक तरह से आज की ये व्यवस्था बहुत अच्छी है। सिर्फ़ टीचर को ही नहीं, हर क्षेत्र में हर किसी को खुद को 'अप्ग्रेड/अप्डेट' करते रहना पड़ता है।
अब जब सोचती हूँ तो बहुत फ़र्क लगता है हमारे समय और आज के पढ़ाने के सिद्धांतों में। दोनों ही अपनी अपनी जगह सही हों शायद। मगर बच्चों से 'डील' करने के तरीके में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ लगता है। अपने स्कूले में बिताये बचपन के बारे में सोचती हूँ तो मुझे बहुत सुंदर कुछ यादों में ले जाता है ये दिमाग़। वहीं पढ़ाई का दबाव, परीक्षाओं की मार और टीचर से कोई सवाल पूछने में हिचक उन यादों में कहीं एक टीस भी देता है।
क्या हमारे शिक्षकों ने कभी ये सोचा होगा कि किसी बच्चे को ग़लती करने पर कक्षा में सबके सामने डाँटने से उसका अपमान होता है? सबके सामने बच्चे को ये कहना कि नहीं तुम्हारा उत्तर सही नहीं है, बच्चे का मनोबल गिराता है? पूरी कक्षा में सबके सामने किसी बच्चे के किसी विषय पर कम अंकों का खुलासा बच्चे का मन पढ़ाई से उचाट सकता है। आइये एक काल्पनिक दृश्य लें।(आज की किसी कक्षा में ऐसा वास्तव में हो ही सकता है।)
फ़्लैश बैक में एक सीन:
सभी लिखने में व्यस्थ हैं। मेरा (बच्ची) मन नहीं है पढाई में। वाक-मैन सुन रही हूँ कक्षा मॆं। टीचर के एक बार मना करने पर मैं नहीं सुनती (बाप रे! क्या ऐसा हो सकता था?)। टीचर आ कर वाक-मैन ले लेती है, शायद हाथ पर रूलर से मार भी पडी हो, (आह!), कोई और पनिश्मेंट भी मिलना अस्वाभाविक नहीं। घर में चिट्ठी भी गयी होगी कि बच्ची स्कूल में वाकमैन ला रही है, और फिर मां-बाप की डाँट, सो अलग। फिर वो वाकमैन ज़िंदगी भर स्कूल नहीं ले जाती मैं। (आप के क्या अनुभव रह सकते हैं ऐसी एक काल्पनिक स्थिति में?)
आज के दिन का एक सीन: कक्षा सातवीं:
सभी लिखने में व्यस्थ हैं। बच्चे का मन नहीं है पढाई में। आइ-पाड सुन रहा है कक्षा मॆं। टीचर के (मेरे) एक बार मना करने पर वो नहीं सुनता।
मैं कहती हूँ- " अभी काम का वक्त है, काम हो जाने पर आप को गाने सुनने का वक्त दिया जा सकता है"
बच्चा बात नहीं मानता टीचर की," मैं ये काम घर में कर लूँगा।"
मैं कहती हूँ," नहीं बेटे, ये काम कक्षा में ही करना है"।
बच्चा फिर भी नहीं सुनता। गाने सुन रहा है। अब?
मैं उसके पास जाती हूँ। :"क्या बात है? क्या काम हो चुका है?"
बच्चा:" नहीं पर मैं घर पर कर लूँगा"
मैं: " कैन आई टाक टु यू आउट्साइड फ़ोर अ सेकंड, हनी?"
बच्चा कक्षा से बाहर आता है।
मैं: "क्या बात है। मैं देख रही हूँ तुम बात नहीं मान रहे हो। कक्षा के नियम के अनुसार पढाई के समय तुम गाने नहीं सुन सकते। "
बच्चा: "पर मैं कल आपको काम दिखा दूँगा, वैसे भी कल ही देना है काम समाप्त कर के।"
मैं: "तुम बहस कर रहे हो। वैसे भी कक्षा के नियम को तोड़ा है तुमने। तुम्हें क्या लगता है मुझे क्या करना चाहिये?"
बच्चा (थोड़ी देर चुप रह कर): "आई डोंट नो"
मैं: "ठीक है, तो तुम्हारे पास तीन चाइस है। मैं खूब ज़्यादा चाइस नहीं देती। पहला, या तो काम पूरा कर के मुझे दिखाओ, फिर चाहे तो गाने सुनो वरना स्कूल के बाद रुक कर वो काम पूरा करो। दूसरा, तुम्हें ये अच्छा नहीं लगता तो आफ़िस में प्रिंसिपल के पास जा कर काम कर सकते हो। और तीसरा, मैं तुम्हारे मां को फ़ोन कर के उनसे तुम्हारी बात करवा सकती हूँ, फिर वो जैसा कहें।"
बच्चा वापस कक्षा में आकर काम शुरु करता है (ऐसा ही होता है साधारणत: वरना अन्य चाइस का सामना करना पड़ता है।)
आप टीचर होते तो ऐसे सीन में क्या करते?
कुछ और टीपिकल क्लास के सीन कभी और।
4 comments:
बहुत सुंदर क्लास सीन को उभारा है आपने यह तो मेरा पसंदीदा विषय रहा है,बाल मनोविज्ञान…काफी सहजता से प्रस्तुत किया है…इतने गहरे विषय को…
हमारे समय तो डंडे से मार पड़ती थी. तब भी नहीं मानते थे. आई पोड तो मास्साब फोड़ फाड़ डालते, साथ में हमको भी, अगर इतनी देर तक उनकी बात न सुनते और घर लौटकर मार पड़ती, सो अलग.
अब तो मानो दुनिया ही बदल गई है-तो स्कूल और तरीके भी. शायद सब कुछ समयानुरुप होता है. क्या अच्छा क्या बुरा!!
:)
कनाडा में यह संभव होगा पर यहाँ भारत में सभी स्कूलों में नहीं। मैंने बहुत प्रयोग करके देखा है। कई बच्चे इतने समझदार नहीं होते।
एक बार फिर से सफलता के लिये बधाई! आगे और अनुभवों का इंतजार रहेगा!
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