जब मैं स्कूल में थी, मुझे हमेशा परीक्षा के अंकों से ही मापा गया। कभी किसी ने ये नहीं सोचा कि शायद मुझे लिखना अच्छा नहीं लगता हो। मुझे मालूम तो है इस प्रश्न का उत्तर मगर अगर कोई मुझसे इसे ज़ुबानी पूछ ले, तो मैं बेहतर बता पाऊंगी। मैंने कक्षा में इस विषय पर हमेशा बहुत अच्छा काम किया होगा, पर परीक्षा मेरे बस का नहीं...कोई क्यों नहीं समझ पाता इस बात को?
काफ़ी दिनों से सोच रही थी कि इस विषय पर लिखूँ, मगर ज़िंदगी के नाना झमेलों में पड़ कर ये स्थगित होता गया। यहाँ पढ़ाते हुये, अनुभवों के साथ ही सीखने को मिल रहा है बहुत कुछ लगातार। जब भारत में पढ़ाती थी तो बच्चे को हम सिर्फ़ पेपर-पेन्सिल वाली परीक्षाओं से ही मापते थे। मगर कुछ बहुत अहं चीज़ों पर न मैंने कभी ध्यान दिया न ही कभी सोचा। अब धारणा बदल रही है।
परीक्षा क्यों हो? क्या ये तय करने के लिये कि बच्चे ने कितना नहीं सीखा? या सीखा? और जो नहीं सीख पाया उसे वो खुद कैसे समझे कि क्या करने से वो उस विषय को समझ पायेगा? परीक्षा बच्चे के 'सीखने' को 'लगातार सुधारने' के लिये होनी चाहिये न कि उसने क्या सीखा या नहीं सीखा उसे 'जज' करने के लिये।
मुझे याद है, मैंने कई बार कम अंक इसलिये प्राप्त किये कि मुझे ज़्यादा समय नहीं दिया गया लिखने के लिये। मुझे प्रश्नों के उत्तर पता थे, पर मैं बहुत तेज़ नहीं लिख पाती थी, तो अंक कम मिले। मुझसे मेरी कापी छीन ली गयी।
आज अगर मैं देखती हूँ कि कोई बच्चा धीरे लिखता है, तो उसे ज़्यादा समय देना हानिकारक नहीं। ये दूसरे बच्चों के प्रति अन्याय भी नहीं। इसे कहते हैं "accomodation" | अगर कोई बच्चा, अकेले में ज़्यादा अच्छा काम करता है, तो उसे एक अलग जगह बिठा कर काम करने देने में कोई हर्ज नहीं। किसी भी शिक्षक के लिये ये ध्यान में रखना कि वो किसी को कंट्रोल नहीं करता, बल्कि ब्च्चों को सीखने में मदद करता है, याद रखना बहुत ज़रूरी है।
एक बच्चा है मेरी कक्षा में। बहुत अच्छा बोलता है। मगर लिखने में उतना अच्छा नहीं। एक और बच्चा है जो बहुत अच्छा लिखता है, पर बोलता अच्छा नहीं। और एक और बच्चा, उसे कुछ बनाने दे दो, कुछ हाथों से काम करने दे दो, वो अपना सारा ज्ञान उँडेल देगा, मगर बिल्कुल चुपचाप रहता है। तीनों बच्चों के सीखने की गति एक ही है, सबका ज्ञान बराबर का है, मगर तीनों की सीखने की पद्धति अलग अलग है। इसे कहते हैं ' learning style' । आप ख़ुद भी ऐसे ही हैं। आपकी 'learning style' आपकी विशेषता है। तो बच्चे ने कितना सीखा, ये देखने के लिये क्या आप उसे एक जैसा ही पेपर-पेन्सिल वाली परीक्षा में डाल देंगे? ऐसा नहीं होना चाहिये। अगर आप शिक्षक हैं तो बच्चों ने कितना सीखा जानने के लिये, परीक्षाओं को कई तरह से डिज़ाइन करें। उसमें लिखना भी हो, कुछ करने वाले कार्य भी हों (जैसे, कोई एक्स्पेरिमेंट, या कुछ तैयार करना आदि), और कुछ मौखिक प्रश्न भी। इस तरह से आप बच्चे ने कितना सीखा सही तरीके से जान पायेंगे। अगर आप अभिभावक हैं तो घर पर भी आप बच्चे को इसी तरह जानने की कोशिश करें। अगर आपको लगता है कि बच्चा विषय को जानता है मगर परीक्षा में खराब अंक लाता है तो आपको पूरा हक़ है कि आप स्कूल में टीचर के ध्यान में इस बात को लायें और परीक्षा में विविधता लाने पर ज़ोर दें।
इस विषय पर तो शायद पूरी किताब ही लिखी जा सकती है, मगर अभी बस इतना ही। हमारे देश में शिक्षण पद्धति में थोड़े बदलाव की ज़रूरत है। विषय को कंठस्थ कर वापस परीक्षा में उंडेल देना, कभी भी शिक्षा का ध्येय नहीं हो सकता। बच्चे को ज्ञान के साथ साथ उसे व्यवहार में ला पाने की काबिलियत दे पाना ही शिक्षा का ध्येय होना चाहिये।
4 comments:
एक छोटी सी प्रतिक्रिया यहां की है
अब समझ आया.. मुझे बचपन मैं कम अंक क्यों मिलते थे.
मानसी जी आपके विचार को मै अच्छी तरह से आत्मसाध कर रहा हूं मेरा बच्चा ६ वी क्लास मे है वह समझता सब है पर जैसा कि आपने लिखा, लिख नही पाता वह लिखने मे श्लो है नतिजतन नंबर औसत ही लाता है मेरी व्यावसायिक व्यस्तता के कारणा मेरी पत्नी ही उसकी पढाई मे सहयोग करती है कई बार हमारी बच्चे के कारण छुटपुट एंकाउंटर हो जाती है आपके जैसे सोच वाले टीचर व अभिभावक हो तो बच्चे का सही आंकलन हो सकेगा नही तो बच्चा कुंठा से भर जायेगा और उसका विकाश अवरुद्ध हो आप एसे विषय पर और लिखे क्योकि बच्चे ही हमारे भविष्य है हमारा सारा कुछ उसी भविष्य के लिये ही तो है ।
मानोशी दी आपने बिलकुल सही लिखा है मेरे भी दो बेटे है एक लिखता अच्छा है और सुनाते वक्त भूल जाता है...दूसरा सुना सब देता है मगर लिखने में बहुत परेशान करता है..मगर क्या उपाय है इसका परिक्षा में जो सही लिख कर आयेगा अंक भी उसी को मिलेंगे...
सुनीता(शानू)
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