आज कल कई जगह कई लेख पढ़ने को मिल जाते हैं जहाँ नारी स्वाधीनता पर और नारी शोषण के खिलाफ़ आवाज़ें सुनाई देती हैं। कई बलाग भी हैं जो नारी के प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाती हैं। ये अपने आप में एक बहुत अच्छी बात है। मैं इस आवाज़ के साथ हूँ। मगर कई बार कुछ ऐसे लेख पढ़ने को मिल जाते हैं जो कि छोटी छोटी बातों को भी नारी के खिलाफ़ हो रहे अन्याय का पर्याय बना देती हैं। हर बात को एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता हमेशा।
मैं शायद खुश नसीब रही। अपने आसपास को देखकर भी इंसान सीखता है, या समझ बनती है। नारी शोषण का वीभत्स रूप मुझे देखने को कोई ज़्यादा नहीं मिला। मां और पिताजी को हमेशा एक साथ निर्णय लेते देखा। बचपन से मां और पापा को एक साथ हँसते, लड़ते, प्यार से रहते देख कर ही बड़ी हुई। कभी ये खयाल भी नहीं आया कि नारी का शोषण होता है। मां ने कभी नौकरी नहीं की पर घर मां ही संभालती थीं, पैसों का हिसाब रखती। पापा को खाना बनाने का बहुत शौक था पर खाना बनाना कभी न आया। मगर मां को उन्हें अक्सर ही दूसरे कामों में सहायता करते देखा है। आज भी ४८ साल की शादी के बाद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते।
शादी हुई। पति साउदी में रहते थे। लोगों ने शादी के बाद भी डराया," कहाँ शादी कर दी बेटी की, ऐसी जगह...लड़के की ठीक से खबर तो ली थी न?" आदि...जाने क्यों मुझे डर नहीं लगा। हाँ कुछ पाबंदियाँ थीं वहाँ, गाड़ी नहीं चला सकती थी आदि| टीचर होने की वजह से मुझे नौकरी मिल गई। वहाँ ससुराल में सास-ससुर के साथ रही। पति, सास ससुर सब से प्यार मिला। क्योंकि मैं नौकरी करती थी, सास घर का काम सम्हालती थीं, और बच्चों जैसा खयाल रखती थीं मेरा। मेरा क्या मेरे पति का, उनके पति का। पर कहीं भी ये अहसास नहीं था कि वो अपना शोषण समझती हैं इसे। हम सब के लिये कर के वो खुश होती थीं। आज भी होती हैं। सम्मान कम नहीं था उनका घर में।
कनाडा आने के बाद, मेरे ऊपर घर की ज़िम्मेदारी पड़ी। शुरुआती संघर्ष के वक्त लगता, कहाँ आ गये। पर बाद में धीरे धीरे सब ठीक होने लगा। मगर आज भी पति रसोई का काम बिल्कुल नहीं जानते। अब शायद कुछ लोग ये कह सकें कि बड़ा अन्याय है, आप नौकरी भी करें और किचन का काम भी? हाँ, सोच की बात है। मुझे अच्छा लगता है घर का काम कर के। वो घर के दूसरे कामों में हाथ बँटा देते हैं। लौंड्री, वाशरूम, वैक्यूम आदि। मैं जब खाना बनाती हूँ, वो कोशिश करते हैं कि हाथ न भी बँटायें मगर साथ रहें किचन में। और मेरा काम बात करते हुये होता रहता है। मैंने अहसास किया है कि, किचन में काम करने का, अंग्रेज़ी का एक शब्द है, knack, वो ही नहीं है उनमें। मुझे अगर अकेले कहीं जाना होता है तो वो कई बार पूछते हैं कि मैं कैसे जाउँगी, वो छोड़ देंगे क्या मुझे, क्या मैं अकेले जा पाउँगी, आदि। भारत अकेले जाती हूँ जब तो मेरा पासपोर्ट, रुपये आदि सब वो मेरे पाउच में रख देते हैं ठीक से और बार बार की हिदायतों से तो मैं तंग ही आ जाती हूँ । तो क्या मेरे नारी अहं को ठेस लगनी चाहिये? क्या मैं इतनी भी काबिल नहीं कि कहीं अकेले जा सकूँ? या कि वो मेरी फ़िक्र करते हैं, खयाल रखते हैं मेरा?
वहीं मैं कई जघन्य किस्से भी सुनती हूँ, नारी शोषण के। ये हकीकत भी है। मुझे याद है, जब मैं छोटी थी, हमारे टाउन्शिप में एक सज्जन रहा करते थे (अभी एक छ्द्म नाम इस्तेमाल करूंगी-अबस) । जब भी किसी के घर जाते, कहते, मेरी पत्नी लक्ष्मी है। मैं इनकी पूजा करता हूँ। आदि आदि। और पड़ोसी उन्हें अक्सर ही अपनी पत्नी को पीटते हुये देखते। उनके अंदरुनी मामलों में कोई दखल नहीं देता, आज होता और यहाँ होता तो आज वो जेल में होते। एक बार उनकी पत्नी को अस्पताल जाना पड़ा और सभी पड़ोसियों ने अबस जी को अपनी पत्नी को पीटते हुये देखा था। किसी ने कुछ कहा नहीं। अबस जी की पत्नी उन्हें छोड़ कर कहीं गईं भी नहीं। जाने क्यों। ये तो ज़रूर हुआ नारी शोषण। उसी तरह बलात्कार एक घिनौना अपराध है, नारी शोषण का एक और जघन्य रूप। मगर अपने घर में छोटी छोटी बातों को नारी शोषण और नारी के प्रति अन्याय का नाम दे कर नारी कई बार खुद अपनी खुशियों को दूर कर देती है। "मैं सब कर सकती हूँ, मुझमें पूरी काबिलियत है" का अहं कई बार उसे अपने ही सुख से वंचित रखता है।
(नोट: ये पोस्ट मेरा अपना नज़रिया है, जैसे मैंने दुनिया को देखा। हो सकता है दूसरों का नज़रिया और उनके अनुभव अलग रहे हों।)
26 comments:
अति सुन्दर लिखा है।
आप ने तो मेरे मुंह के शब्द छीन लिए, मेरे अनुभव बिल्कुल आप के जैसे हैं शुक्रिया इस पोस्ट को लिखने के लिए
aap bahut khushnaseeb rahin ki sab accha raha aapke saath par aapki post se main bahut prbhavit hui hun bahut se ghar ke kaam aurat ko kar ke hi khushi milti hai aur wah sab aapke jafazo se chalka hai aham ka mudda na ho to sab accha chalta hai ,,bahut sundar baate aapne likhi hain likhti rahe
बहुत सही लिखा है.....नारी मुक्ति के लिए हर समय तैयार रहने वाले तथाकथित क्रांतिकारियों को इससे सबक लेना चाहिए...मुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने दायित्वों से भी मुक्त हो जाएं.....
स्वाधीनता का मतलब समझने के लिये मानसिक रूप से स्वतंत्र होना जरुरी होता हैं . अगर आप मानसिक रूप से स्वतंत्र हैं तो आप हर काम अपनी खुशी के लिये करते हैं
अपनी खुशी से मतलब हैं की आप को उस काम को करने मे खुशी मिलती हैं . किसी भी परम्परा को अगर आप सामाजिक दबाव की वज़ह से करते हैं तो वो आप की खुशी नहीं हो सकता . और जो भी ब्लॉग इस पर बात करते हैं वह सब इन्ही चीजों के बारे मे बात करते हैं . आप के विचार भी अच्छे ही है
रचना जी, यही बात तो है, स्वतंत्रता की परिभाषा भी आजकल अलग हो रही है। किसी पोस्ट में मैंने ये भी पढ़ा कि घर के काम के लिये महिला को मेहनताना मिलना चाहिये। मानसिक रूप से अपने आप को इस तरह परतंत्र समझना, मुझे समझ नहीं आता। अपने ही घर का काम पेशा लगने लगे, ऐसी स्वतंत्रता की समझ मेरे गले नहीं उतरती।
मानोशी:
एक अच्छे संतुलित लेख के लिये बधाई ।
सच तो ये है कि हम सब अपना अपना सच जीते हैं , अपने आप को किसी दूसरे की परिस्थिति में रख्न कर सोच पाना एक सीमा तक ही संभव है । सुख की परिभाषा भी हम ही निर्धारित करते है , इसलिये यह मानना भी गलत होगा कि ’सुख’ की स्थिति सिर्फ़ एक ही है और सब को वह सुख प्राप्त करने के लिये प्रयास करना चाहिये ।
हां यह ध्यान रखने की बात है कि हम ’कूप मंडूक’ हो कर न रह जायें और ’थोपे गये या बरगलाये सुख’ को ही अपना अंतिम लक्ष्य न समझ बैठें ।
स्नेह
मानसी
"घर के काम के लिये महिला को मेहनताना मिलना चाहिये।" बहुत से घरो मे ऐसी औरते भी हैं जिनके पति की क्या आय हैं , अकाउंट मे कितना पैसा हैं वो ये भी नहीं जानती . और आप ने सही कहा हैं की आज कल स्वतंत्रता का मतलब बदल रहा हैं . क्योकि ये आप का पर्सनल ब्लॉग हैं और ये आप का माध्यम और अधिकार हैं कुछ भी अभिव्यक्त करने का इसलिये आप की सोच पर या लेख पर कोई भी पर्सनल कमेन्ट नहीं होना चाहेये पर मे आप से एक बात जरुर कहुगी आप को केवल शीर्षक से राय नहीं बाना लेनी चाहेये . आप को उस पर हो रहे संवाद मे भाग लेना चाहेये और जो कमेन्ट आए हैं उनको भी देखना चाहीये . जो लोग नारी स्वाधीनता पर लिख रहे हैं वो सामाजिक सोच की बात कर रहे हैं जिस मे नारी के प्रति समान सद भावः नहीं हैं . आप पति के साथ खुश हैं या नाखुश हैं ये किसी को तभी पता चलता हैं जब आप बताते हैं . और आप की उस खुशी या नाखुशी पर जब कोई टिका टिपण्णी नहीं होती हैं तो उन स्त्रियों पर टिका टिपण्णी क्यों की जाए जो इस बात से अलग सोचती हैं . सब की अपनी सोच हें और हर के अपनी सोच से एक परिपक्व उम्र के बाद जीने का अधिकार ही स्वतंत्रता हैं जो नारी को बराबर नहीं मिलती हैं
bhut sundar. bilkul sahi baat kahi hai aapne. likhti rhe.
रचना जी, ये बहस तो ऐसी है कि कभी न खत्म हो। "बहुत से घरो मे ऐसी औरते भी हैं जिनके पति की क्या आय हैं , अकाउंट मे कितना पैसा हैं वो ये भी नहीं जानती " | अब ये भी निर्भर करता है कि क्या वो खुद ही जानना नहीं चाह्ती, आगे का नहीं सोचती कि अगर कल को कुछ हुआ तो क्या होगा(जो कि सोचना चाहिये) या पति ने दबा कर रखा हुआ है, जानने नहीं देना चाह्ते? मैंने लेख पढे, टिप्पणियाँ भी पढ़ीं। सिर्फ़ टाइटल नहीं ही पढ़ा। :-) मैं भारी नारी शोषण के खिलाफ़ हूँ, मैंने पहले ही कहा है, पर नारी मुक्ति आदि के मानसिकता के चलते आजकल जैसे सहज बात को भी शोषण, परतंत्रता आदि का पर्याय दिया जा रहा है। खैर...किसी भी विषय पर हर तरह की प्रतिक्रिया ही अच्छी लगती है, जैसा मैंने कहा सबकी अपनी सोच है। मार खा कर जीने वाली औरत और पति से घर का खाना बनाने का मेहनताना माँगने वाली औरत, दोनों के ही पक्ष में नहीं हूँ।
अनिताकुमारजी ने apne ek blog par भी आपकी ही तरह बातें की थीं कुछ पोस्ट्स पहले. कितनी लानत-मलामत हुई उनकी जाकर उनके ब्लॉग पर देख लीजिये :-) नारीवाद सिर्फ़ युवा महिलाओं के लिए है, इसमें किसी भी एक महिला और एक पुरूष के विवाद में पुरूष को ही ग़लत माना जाता है, युवा महिला और जीवन को समग्रता में देख चुकी उम्रदराज़ महिला में अनुभवी महिला को खूसट और खडूस माना जाता है.
उन्होंने बहू और उसके मायकेवालों द्वारा किए जाने वाले उत्पीडन पर पोस्ट लिखी थी, कमेंट्स में इसके लिए भी लड़के और उसकी माँ को ही हर स्थिति में पूरी तरह दोषी बता दिया गया.
ये तालिबानी नारीवाद है, जो उनसे सहमत नहीं उसके खिलाफ फतवा.
ab inconvenienti
yuva kii umr kyaa hotee haen ?? anita abhi 50 kae aas paas hee hogee .
उम्रदराज़ महिला में अनुभवी महिला को खूसट और खडूस माना जाता है.
yae phir aap ki nij soch haen kyoki aap esa hee ek 62 varsh kae purush kae liyae ek blog par keh chukae haen .
har laekh ko jo naari ki soch sae aata ho naarivad kehnaa kyaa uchit haen .
anubhav ki apni importance hotee haen laekin badaltey samay kae saath zindgi ki zaruratey bhi badaltee haen . baat badlav ki haen . mansi nae apna nazariya diya baaki sab apna kament mae daetey haen is par yae mannaa ki jo maansi ki baat sae itefaaq nahin raktey woh talibani haen kehnaa nitant galat haen
मानसी
मेरा मानना हैं की नारी और पुरूष को समान अधिकार हो अपनी जिंदगी जीने का . "मैं सब कर सकती हूँ, मुझमें पूरी काबिलियत है" का अहं कई बार उसे अपने ही सुख से वंचित रखता है।
किसी की जरुरत और काबलियत को अहम् कहना क्या जरुरी हैं ?? क्या जो पुरूष शादी नहीं करते उनके लिये भी अहेम का शब्द इस्तमाल होता हैं ?? "मगर अपने घर में छोटी छोटी बातों को नारी शोषण और नारी के प्रति अन्याय का नाम दे कर नारी कई बार खुद अपनी खुशियों को दूर कर देती है। "सब को अपनी खुशिया खोज कर पाने का अधिकार हो क्योकि किसी को भी ये बताना की तुम जो खोज रहे हो वोह तुम्हारी खुशी नहीं हैं या जो हो रहा हैं सदियों से वही सही हैं सो उसी मे खुश रहो क्या भ्रान्ति नहीं फेलाता . अब देखिये आप के व्यू पॉइंट को लोग पसंद करते हैं इसलिये आप को टॉप पर रखा गया हैं चिट्ठा चर्चा मे आज !!!!! बंधी बंधाई जिन्दगी की राह आप को खुशी देती बहुत अच्छी बात हैं पर आगे आने वाली पीढी के लिये खुशी क्या होगी , सही क्या होगा इसका फ़ैसला क्या हम कर सके इतनी सही हम सब हैं ?? बहस हमेशा होती हैं होती रहेगी क्यो सबकी सोच एक सी हो ये सम्भव ही नहीं हैं लेकिन अगर ९९ सही हैं तो ये भी जरुरी नहीं की १ जो अलग हैं वो ग़लत हैं अगर ऐसा होता तो कोई भी नया आविष्कार दुनिया मे नहीं होता
मानोशीजी,
आपका लेख विचारों और अभिव्यक्ति की स्पष्टता और अपनी संतुलन शैली के चलते सचमुच इस काबिल है की उसका ज़िक्र सबसे पहले चिट्ठा-चर्चा में किया जाए. दृष्टिकोण उसके बाद आता है और वो भी संतुलित है, समन्वयकारी है.
आप से निवेदन है की व्यक्तिगत सुखों के उदाहरण से मन की बात मत समझाईये कहीं किसी मनहूसमारी की नज़र ना लग जाए!
हिंदी ब्लाग मंडल में कुछ ऐसी महिलाओं का आगमन हुआ है जिन्होंने अब तक जितने भी ब्लॉग्स बनाए हैं उनका एक ही विषय है "नारी"!
एक ब्लागर होने के नाते इस से उनकी सोच के लिंग आधारित ध्रूवीकरण का पता चलता है. क्या किसी पुरुष नें ब्लाग बनाया "मर्द"?
दुनिया भर के मर्द ब्लाग्स पर औरत की खूबसूरत तस्वीरें लगा रहे हैं (हां सुंदर औरतें हमें अच्छी लगती हैं क्या कर लीजियेगा, प्रकृति ने ऐसा ही बनाया है), हम उन पर सुंदर कविताएं लिख रहे हैं उन से प्यार कर रहे हैं.. फ़िदा, फ़ना हो रहे हैं और उनका सम्मान भी कर रहे हैं यदी वो उस लायक हैं!
अब कुछ औरतें जो इस सब से महरूम हैं उनके पेट मे मरोंडे पडना समझ मे आता है - सहानुभूती की जा सकती है की दूसरियों की खुशी ना देखी जा रही!
आपके लिये ढेरों शुभकामनाएं.
मानसी जी आपको पढ़कर अच्छा लगा ,सच में कितनी स्त्रिया घरेलु हिंसा का शिकार है ओर इसे अपनी किस्मत का जामा पहनकर बिठी है ,आधी को अपने अधिकार नही मालूम ,आधी अपने घर टूटने के घर से सहमी है ,कई के माँ बाप जात बिरादरी ओर समाज का हवाला देकर बैठाये रखते है.....जब तक हम किसी स्त्री को आर्थिक आत्मनिर्भरता नही देंगे ऐसी मुश्किलें आती रहेगी.....
निश्चित रूप से आज का मानव समाज पुरुष प्रधान है और नारी का स्थान दूसरे क्रम पर है। नारी को समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं। यह तथ्य है विचार नहीं।
अब अगर किसी परिवार में पुरुष चाहे तो नारी को समान अधिकार दे सकता है और चाहे तो उसे खुद से भी अधिक अधिकार दे सकता है। जहाँ नारी को परिवार में समान अधिकार मिले हैं वहाँ उस की स्थिति सुखद होगी, जहाँ उस से भी अधिक अधिकार मिले हों वहाँ बहुत अच्छी होगी। लेकिन जहाँ कोई अधिकार नहीं वहाँ? निश्चित रूप से नारी की स्थिति एक गुलाम सी हो सकती हैं।
कुल मिला कर नारी की स्थिति इस पर निर्भर करती है कि उसे पिता, पति और पुत्र या किसी अन्य साथी के रूप में जिस पुरुष का साथ मिला है वह कैसा है?
हमारे यहाँ कहते हैं कि पति अच्छा मिल गया नारी का जीवन स्वर्ग समान और बुरा मिले तो उस का जीवन नर्क समान।
यह तो हुई परिवार की बात। परिवार के बाहर क्या स्थिति है? सब जगह पुरुष ही तो हावी हैं। तो इस बात को स्वीकार कर लेने में क्या तकलीफ है कि आज भी समाज में नारी दूसरे दर्जे की नागरिक है। भारत का संविधान नारी को बराबर का अधिकार देता है। तो इन दो स्थितियों में जो अन्तर्विरोध है, उसे हल तो करना होगा। वह तभी तो हल होगा जब समाज में नारी और पुरुष के लिए बराबरी की मानसिकता हावी हो लेगी। रचना यही चाहती है और उस के लिए काम करती है।
और मानसी जी, आप के परिवार में आप को बराबर का अधिकार मिला है तो आप की स्थिति स्वर्ग समान है। लेकिन यह पूरे समाज का सत्य नहीं है। आप के उदाहरण को समाज के लिए स्वीकार कर लिया जाए तो क्या यह सही होगा। आप का सत्य क्या समाज का सत्य है?
आप अपने आसपास देखें। क्या आप के यहाँ आने वाली नौकरानी/बाई की वही स्थिति है जो आप की है। सऊदी में क्या वही स्थिति है महिलाओं की जो भारत में है। भारत में भी गांवों में जो हालात हैं वैसे क्या शहरों में हैं। फिर जो स्थिति निम्नवर्गीय परिवारों में है वह निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में नहीं। जो मध्यवर्गीय परिवारों में है वह उच्चमध्यवर्गीय परिवारों में नहीं है। और उच्च व धनाड्य वर्गों में बिलकुल भिन्न स्थिति है। कुल मिला कर नारी की स्थिति क्या है यह हमें देखना चाहिए। आप जैसी भाग्यशाली नारियों के उदाहरण से यह अनुमान लगाएँ कि उन की स्थिति समाज में बेहतर है।
हमें समाज के बारे में विचार करते समय पूरे समाज को ध्यान में रखना होगा। अगर हम केवल अपनी स्थिति से पूरे समाज की स्थिति का संधान करेंगे तो। कुएँ के मेंढक ही कहलाएँगे, जिसे कुएँ में ही समूची दुनियाँ नजर आती है।
"दुनिया भर के मर्द ब्लाग्स पर औरत की खूबसूरत तस्वीरें लगा रहे हैं (हां सुंदर औरतें हमें अच्छी लगती हैं क्या कर लीजियेगा, प्रकृति ने ऐसा ही बनाया है), "दुनिया भर के सब मर्द औरतो को जिस नज़र से देख रहे हैं ये बता कर बहुत भला किया हैं लच्छू भैया जी ने . कुछ मर्द , औरतो के बाप भी हैं और ऐसे मर्द जो औरतो के बाप हैं और जिनके घर मे केवल एक ही औलाद हैं और वो भी औरत , जरुर उस औलाद को बुर्के मे रखेगे . और कहीं वो औरत जो इस मर्द की औलाद हैं ब्लॉग भी लिखती हो जैसे बेटियों का ब्लॉग तो उन सब के ब्लॉग पर से उनकी तस्वीर को तुरत हटाना होगा वरना लच्छू भैया की दीवारों पर चिपकी दीखेगी . मनहूसमारी जो ये सब लिख रही हैं वो आगे आने वाली पीढी की लड़कियों को इस तस्वीर बनने से बचा रही हैं और जिन औरतो के चेहरों लच्छू भैया का कथन स्मित की रेखा लाता हैं वो ख़ुद अपनी जाती की दुश्मन से ज्यादा कुछ नहीं हैं
लच्छु जी की बातें निंदनीय हैं
Maansi achha or sachha likha hai.
lekin
lachuu ji ko naari ke baare mai es parkaar ki tuchh batai nahi kahani chahiye....
je nindneey hai....
Manvinder
लच्छू भैया जी! जिस से लगन लगी, जिस के लिए बैठे रहे उसने दूसरे का पल्ला बांध लिया तो इस में उस का या किसी और का क्या कसूर? कोई कमजोरी आप ही की रही होगी, मर्दाना या कोई और? आप से कहा था कुढ़ना छोड़ दीजिए वरना कोई कुड़ी प्रसन्न ना होने की। मरद हो तो ना मरद बिलाग बनाने की जरूरत और ना ही कुड़ियों के फोटू चिपकाने की। जे परदे से बाहर आएँ, थोड़ा मरदाना व्यवहार करें तो आप के लिए घर संभालने वाली तलाश कर दें।
’जाके पैर न फटी बिवाई, वो का जाने पीर पराई’
”समरथ को नहीं दोष गुसाईं"
ये कहावतें ऐसे ही तो न बन गयीं। आप का नज़रिया !
meree sahamati dineshji ke saath hai. amooman mei bhee yahee kahanaa chahatee hoon.
एक अच्छे संतुलित लेख के लिये बधाई ।
सच तो ये है कि हम सब अपना अपना सच जीते हैं , अपने आप को किसी दूसरे की परिस्थिति में रख्न कर सोच पाना एक सीमा तक ही संभव है । सुख की परिभाषा भी हम ही निर्धारित करते है , इसलिये यह मानना भी गलत होगा कि ’सुख’ की स्थिति सिर्फ़ एक ही है और सब को वह सुख प्राप्त करने के लिये प्रयास करना चाहिये ।
हां यह ध्यान रखने की बात है कि हम ’कूप मंडूक’ हो कर न रह जायें और ’थोपे गये या बरगलाये सुख’ को ही अपना अंतिम लक्ष्य न समझ बैठें ।
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अनूप भार्गव जी के उपरोक्त कमेंट से सहमत हूँ !
आप सबके कमेंट्स के लिये शुक्रिया। अनूप जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ। मैंने अपने लेख में इसी बात को बार बार कहा कि जो आजकल नारी मुक्ति के चलते औरतें अपने अधिकार की बात करती हैं और कई बार इसका गलत फ़ायदा उठाती हैं, ये सही नहीं है। मैंने दोनों पक्ष रखे। जहाँ बचपन में अपने पड़ोसी महिला को पिटते हुये देखा उसकी निंदा की, वहीं कहा कि पति और घर के लिये खाना बना कर अहसान करने वाली महिला भी कोई महान काम नहीं कर रही। आज की नारी पढी लिखी है, (अब इस पर भी बहस होगी मुझे पता है) और अगर समाज के डर के चलते उसे शोषण सहन करना पड़ता है तो ये तो उस औरत का अपना निर्णय है।
द्विवेदी जी की बातें अच्छी हैं मगर फिर वही बात आती है। नारी को अधिक अधिकार??? ऐसा क्यों? इस अधिकार की बात सोची ही क्यों जाये? यकीं जानिये, आज कल ब्लाग जगत पर ऐसे लेख पढ़ने को मिल जाते हैं जो कि तिल का ताड़ बनाते हैं। हाँ पति शराबी हो, मारे पत्नी को, और पत्नी सह्ती जाये, ये अनपढ़, जिसका कोई सहारा नहीं आदि औरतों पर लागु हो सकता है, पर आजकल के ब्लाग लेख जैसे गुट बना कर पुरुष के खिलाफ़ हो लड़ने चली है...ऐसा नहीं है, दुनिया बदली है, और जैसा अनूप जी ने कहा, 'कूप मंडूक' बन कर न रहें।
anyways...guys lets move on...
बड़ा अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़कर। इस तरह के लेख लिखती रहें , नियमित।
मानसी जी, मैं ने नारी को अधिक अधिकार की नहीं, अधिकार की बात की थी। परिवार और समाज में नर-नारी की भूमिकाएँ भिन्न हो सकती हैं लेकिन अधिकार समान होने चाहिए और किसी भी प्रकार से एक दूसरे का शोषण ना हो।
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