Sunday, December 14, 2008

अलविदा- "दादू गाड़ा"


१९ दिसंबर १९८४ को आगमन हुआ था हमारे घर, "दादू गाड़ा" का अर्थात पापा की फ़ियट गाड़ी, १९६७ में बनी माडेल। तब मैं छोटी थी, बहुत उत्साहित थी। उस गाड़ी के साथ बहुत सारी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। तब दोनों भैया भी पढ़ रहे थे। और छोटे भैया ही उसकी देखरेख करते थे। उन्हें गाड़ी के बारे में बहुत कुछ पता था। सफ़ेद...चमचमाती, भैया इसे नई गाड़ी की तरह ही रखते थे।

इस गाड़ी के साथ हम कोरबा से कलकत्ता घूमने गये थे, ढाई दिन का सफ़र, साथ में रफ़ीक अंकल हमारे ड्राइवर थे। उस गाड़ी में उस वक़्त टेप-रिकार्डर लगा हुआ नहीं था, तो हम अपने साथ पैनासोनिक का छोटा सा टेपरिकार्डर ले गये थे और जगजीत सिंह, मुकेश आदि के गाने सुनते सुनते...मध्य प्रदेश का पत्थल गाँव के एक छोटे से रेस्ट हाउस में रात गुज़ारना, बिहार के गुमला शहर से कुछ खरीदारी करना, रास्ते में ढाबों में तड़का और रोटी खाना...और साथ हमारी गाड़ी...सुंदर यादें...

कुछ सालों बाद आकाशवाणी से गाने का मौक़ा मिला। मेरे लिये एक बड़ा मील का पत्थर था गायन के क्षेत्र में, बार बार रिकार्डिंग आदि के लिये जाना पड़ता, रायपुर तक, ३०० किमी की दूरी, तेज़ बारिश में, कभी उबड़खाबड़ रास्ते पर से...इसी गाड़ी के साथ...

भैया की शादी के बाद इसी गाड़ी को सजा धजाकर भाभी को घर लाना...

भैया के बेटी होने पर, उसे भी इसी गाड़ी में अस्पताल से घर लाना...इस गाड़ी ने साथ नहीं छोड़ा।

जब भैया की बेटी बात करना सीख रही थी, उसे ’ई’ का स्वर कहना नहीं आता था। क्योंकि दादू की गाड़ी थी, वो इसे "दादू गाड़ा" कहती थी। तब से हम ने भी अपनी गाड़ी को "दादू गाड़ा" कहना शुरु किया।

जब पापा रिटायर होने लगे और कलकत्ता में जा कर बसने का निर्णय ले लिया, तब इस गाड़ी को हम कोई भी बेचना नहीं चाहते थे। तब छोटे भैया इसे अपने साथ ले कर चले गये। २४ साल तक ये गाड़ी हमारे साथ रही। कल भैया से फ़ोन पर बात हुई, उन्होंने बताया कि उन्होंने इस गाड़ी को बेच दिया है... अभी भी अच्छी चल रही थी ये गाड़ी। वो ख़ुद बहुत इमोशनल थे। उन्होंने इस गाड़ी को बहुत सम्हाल कर, प्यार से रखा था। मगर अब दो गाडियों में से एक को विदा करना चाहते थे। हम दोनों ने उस गाड़ी के बारे में कुछ देर बातें की और अपनी यादों को ताज़ा किया। सच, कैसे अजीब इमोशनल अटैचमेंट हो जाती है गाड़ी के साथ भी। घर का सदस्य बन जाता है कैसे ये वाहन...अजीब बात है...

वो लैम्बी स्कूटर याद है? हरी वाली, जो किक की बड़ी प्राब्लेम करती थी? सुना, कि वो भी दो- तीन साल पहले चली गई हमारे घर से। ऐन्टीक ही थी सच, १९७८ में ख़रीदी थी पापा ने...उस के जाने पर भी दुख हुआ था हम सब को...

पर फिर नई आदतें, नये सुख हमारे ज़िंदगी का हिस्सा बन जाते हैं और थोड़े दिनों में हम भूल जाते हैं पुरानों को...

मेरी एक पुरानी गज़ल का शेर याद आ गया-

मेरे घर में उस बुढ़ापे के लिये कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिये सारी जवानी दे गया।

11 comments:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

मेरे घर में उस बुढ़ापे के लिये कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिये सारी जवानी दे गया।
sara dard kah gaya yah sher

फ़्र्स्ट्रू said...

:) पढ के मुझे अपने बचपन की पहली साईकिल याद आ गयी

फ़्र्स्ट्रू said...

:) पढ के मुझे अपने बचपन की पहली साईकिल याद आ गयी

"अर्श" said...

sher kis or ankit karta hai bahot hi badhiya likha hai apne ,bahot khub..


arsh

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Manoshi ji ,
Lag raha hai aj koi childhood memory pratiyogita to naheen ayojit hai?Abhee abhee Raveesh kumar ji ka blog padha to Unhone bhee Barham baba ko vishaya bana kar apne bachpan kee yadon ka jikra kiya hai.Idhar apne bhee ...
Any way,Purana kuchh bhee ho ..chahe vyakti..ya vastu..har cheej se hamen atmik lagav to ho hee jata hai.
Mujhe apne 22 sal purane Minolta kamre se itna lagav hai ki..digital yug men aane ke bad bhee mai use naheen bech pa raha hoon.
sundar lekh ke liye badhai.
Hemant Kumar

उन्मुक्त said...

मेरा परिवार स्टैंडर्ड गाड़ी का कायल था। कभी हम जब पुरानी कार बेचने की बात करते तो मां कहती किसी दिन मैं भी पुरानी हो जाउंगी तो क्या मुझे भी बदल दोगे।

अजित वडनेरकर said...

मानसी जी , बेहतरीन पोस्ट है। सबसे बड़ी बात कि आपने विषय के साथ वास्तविक चित्र भी संजोये। इसे रेखाचित्र-संस्मरण किसी भी विधा में रखा जा सकता है।
आना सुखदायी होता है , जाना दुखदायी। स्मृतियों की हार्डडिस्क में काफी स्पेस है। जो कुछ हम भौतिक रूप में सहेज-समेट नहीं पाते हैं वह सब यादों के रूप में यहां स्टोर किया जा सकता है।

समयचक्र said...

बेहतरीन पोस्ट है....

गौतम राजऋषि said...

सुंदर संस्मरण और उतने ही सुंदर शब्दों में चित्रण भी....शेर ने तो जान ही निकाल दी.पूरी गज़ल पढ़वाइये प्लीज...

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

आप सबको धन्य्वाद जो आप इस पोस्ट से relate कर पाये। सार्थक हुई ये पोस्ट। गौतम, एक बार पहले ये गज़ल पोस्ट की थी पहले, आपके कहने पर फिर एक बार कर दूँगी।

shivraj gujar said...

bahut hi badiya monsiji. kitani hi cheejen hoti hain jo hamare saath saath badi hoti hain or hamare jawan hote hote ya to dum tod deti hain ya fir hum unhen ghar nikala de dete hain. unmen se kai ke saath vakai bahut jyada attachment ho jata hai, ek mitr sa , ek ghar ke member ka sa.
bahut hi badiya rachana, sadhuvad.
kabhi mere blog (meridayari.blogspot.com) par bhi aayen.