Thursday, February 05, 2009

छन्न!

वो रोज़ टुकर टुकर
देखता था मेरी ओर
मेरे पोर पोर में बसता
फिर टप टप टपकता
और मुझे ले कर बह जाता
रात को ज़रा देर तमाशा करता
और मेरे सिरहाने सो जाता
मगर आज फिसल कर गिरा
छन्न...
टूटने के बाद
आँखों मॆं चुभकर
अब ज़ार ज़ार पानी बहाता है

6 comments:

Vinay said...

बेहतरीन रचना!

Sanjay Grover said...

UFF!!!

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

सच्ची!!! टूटे सपने आंखों में बहुत छुट चुभते हैं. बहुत सुंदर रचना.

गौतम राजऋषि said...

छन्न कि उफ़....

पूनम श्रीवास्तव said...

Manoshi ji,
kam shabdon men khoobsoorat abhivyakti.
Poonam

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

छोटी मगर अच्छी काम्पैक्ट कविता ...
हेमंत कुमार