Thursday, February 12, 2009

हम और तुम



अभी कल की बात प्रियतम,
अजनबी से हम मिले थे,
कनखियों से कुछ कहा था,
आँख में थीं ढेर बातें
बात जो इक छोड़ आये थे
अनजाने ही वहीं रखी है|
.
बात बढ़ी फिर, हाथ मिले फिर
तुम मिले जो, संग चले फिर,
अनछुये थे पृष्ठ कई जो
साथ दो अक्षर पढ़े फिर,
और लिखने शब्द आधा
साथ रुपहला कलम उठाया |


हाथ थाम कर निकल पड़े हम
साथ अजाना, कठिन डगर थी,
कभी धूप को मुँह चिढ़ाया
कभी छाँव की पूँछ पकड़ ली,
कच्चे-पक्के स्वाद निराले
आधा-आधा चखे थे दोनों।




अक्सर पगली हवा उड़ी जब
बाँह खोल कर वृक्ष तने तुम,
चंचल लहरों सी मचली मैं
सागर में इक द्वीप बने तुम,
अपना सर रख सीप-गोद में
छुई-मुई मोती बन मैं सोई |

एक रेत की सूखी आँधी
में उजड़े जब कुछ सपने थे,
आँसू से सीले लम्हे चुन
साथ सिरहाने रख कर सोये,
चंदा की लोरी की यादें
बादल के पिछवाड़े रख कर
आँखों में फिर नये स्वप्न के
इंद्रद्गनुष को रंग लगाये |

कई बुलबुले उठे खो गये,
कई राह में अलग हो गये,
तुम और हम बस साथ निभाते
चले नाव को संग खेवाते,
अभी दोपहर की छतरी में
संध्या आसन बिछा रही है
पग-पग हम बढ़ उधर रहे हैं
उँगली में उँगली उलझाये |


शाम से होगी रात एक दिन,
उसके बाद इक नया सवेरा,
तब पिछली रातों की गिनती
तारों की हम बात करेंगे,
मगर कभी क्या ये सोचा है
तुमने या फिर मैंने ही कि
अब भी वो इक बात अनकही
इतराती है उसी भवन में ?



















5 comments:

अनिल कान्त said...

sachmuch bahut khoobsurat rachna ki hai aapne

गौतम राजऋषि said...

बहुत सुंदर मानोशी...तारिफों से परे
पढ़ते-पढ़्ते एकदम से बस गुनगुना उठा इसे
खास कर ये पद
"अक्सर पगली हवा उड़ी जब
बाँह खोल कर वृक्ष तने तुम
चंचल लहरों सी मचली मैं
सागर में एक द्वीप बने तुम
अपना सर रख सीप की गोदी
में मोती बन छुई मुई सोई"

....बहुत खूबसूरत-सचमुच

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

मानसी जी ,
वैसे तो पूरा गीत ही बहुत अच्छा बन पड़ा है
लेकिन ये कुछ लाइन बहु खूबसूरती से रची गयी हैं
एक रेत की सूखी आँधी
में उजड़े जब कुछ सपने थे
आँसू से सीले लम्हे चुन
साथ सिरहाने रख कर सोये
चंदा की लोरी की यादें
बादल के पिछवाड़े रख कर
आँखों में फिर नये स्वप्न के
इंद्रद्गनुष को रंग लगाये
बाकी पूरे गीत में कहीं कहीं एकाध शब्द बदलने की जरूरत है जैसे
आधा आधा चखे हम दोनों
yadi ise badal saken to geet shayad aur achchha ban sakega.
हेमंत कुमार

रजनी भार्गव said...

बहुत सुन्दर मानुषी, कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति है।

Sundeep Kumar tyagi said...

कवीन्द्र रवीन्द्र की संगीत माधुरी के साथ साथ आपकी कविताओं की लयात्मकता का तो बस कहना ही क्या है।रसानुरूप कमनीय काव्य सृजन की उत्कृष्टता आपके ब्लॉग पर संश्लिष्ट प्रत्येक रचना में से झाँकती सी दिखाई पड़ती है।कनाडा के परिवेश को हिन्दीमय बनाने के लिये आपका प्रत्येक प्रयास स्तुत्य है।