Saturday, April 04, 2009

मेरा न्यायाधीश- भाग १

(ये संस्मरण पूर्णत: सत्य घटनाओं पर आधारित होने की वजह से , इसके मुख्य पात्र की पहचान को सुरक्षित रखने हेतु, उसका नाम बदल दिया गया है। )

बहुत दिनों से इसे पोस्ट करने का मन बना रही थी, मगर आज हो पा रहा है। जब इसे पहली बार अचला जी ने मुझे पढ़ कर सुनाया था, तो मेरे आँखों से निर्झर आँसू बहे थे। ये बस आज ही टाइप हो कर पूरा हो पाया है। अचला जी को लिखने की कला महादेवी वर्मा जी से विरासत में मिली है। वो टोरांटो में ही रहती हैं और अब टोरांटो स्कूल की एक रिटायर्ड शिक्षिका हैं।

मेरा न्यायाधीश

हम लोगों के मानस-पथ से न जाने कितने लोग गुज़रे हैं। कुछ लोग हल्के-हल्के क़दम उठाते हुये, कुछ ऐसे ढंग से कि उनके पदचिह्ण ढूँढे से भी नहीं मिलते, कुछ क़दम जमा-जमा कर हर पदक्षेप के साथ अपनी पहचान बनाते हुए। डेविड इस दूसरी श्रेणी के लोगों में एक था। आज सालों बाद भी उसकी याद मेरे मन में ताज़ा है और वह अपराधबोध भी जो उसकी याद के साथ अखण्ड रूप से जुड़ा है।

हम शिक्षकों को सिर्फ़ दो ही तरह के विद्यार्थी छाप छोड़ने वाले प्रतीत होते हैं - बहुत प्रखर बुद्धि और अच्छे व्यवहार वाले या मन्द बुद्धि व उद्दंड व्यवहार वाले। अभाग्यवश डेविड की गिनती इस दूसरे श्रेणी के विद्यार्थियों में होगी। पूत के पालने से ही दिखने वाले पाँवों की तरह अपने भावी विद्यार्थियों के रंग-ढंग हम लोगों को किंडरगार्टन से ही पहचानने में कठिनाई नहीं होती। कब किसने अपना आधा सेब अपने मित्र को खिला पाने के आग्रह में उसके मना करने पर भी उसके मुँह में इस तरह ठूँसा कि उसका साँस लेना भी दूभर हो गया, कब किसने क्लास में अपने सामने बैठी लड़की के बाल समान रूप से कटे न देख कर चुपचाप कैंची से काट कर कुछ ऐसे बराबर किये कि उसका सर ब्रश की तरह दिखने लगा, व किसने किसी से झगड़ा हो जाने पर दूसरे बच्चे को घोड़ा समझने की ग़लतफ़हमी में उसके मुँह पर स्किपिंग रोप की लगाम लगा कर सवारी गाँठ ली, ये क़िस्से हम लोगों को शुरु से ही सुनने को मिलते हैं। डेविड के बारे में भी इस तरह की बातें हम लोग सुनते रहते थे। पहली कक्षा में आने पर तो उसकी उद्दंडता और भी बढ़ गई। रोज़ ही तोड़-फोड़ या नई शरारत करना उसके कार्यक्रम का एक आवश्यक अंग बन गया था।

एक दिन उसकी शिक्षिका ने हाँफ़ते-हाँफ़ते स्टाफ़रूम में प्रवेश किया। गुस्से में मेज़ पर किताबें फेंक कर पहले तो डेविड को उसने एक ऐसी जगह भेजने की व्यवस्था की जिसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में कोई ज्ञान नहीं है (टू हेल...), फिर उत्तेजित स्वर में बताया कि कक्षा में शरारत करने के कारण जब उसने डेविड को कोने में अकेले बैठने का आदेश दिया, तो उसने ’फ़...आफ़’ का धीमे पर श्रवण योग्य स्वर में पाठ करना शुरु कर दिया। इस अक्षम्य अपराध के कारण जब उसे प्रिंसिपल के पास ले जाया गया, तो उसने भोला सा मुँह बना कर कहा, " मेरे सामने मेज़ पर ग्लोब रखा था, उसमें मुझे अफ़्रीका देश दिखाई दिया। मुझे ये नाम हमेशा भूल जाता है, इसीलिये मैं बार बार उसी नाम को दोहरा था, मैंने वह नहीं कहा जो टीचर कह रही है।"

उस शिक्षिका को जहाँ डेविड पर क्रोध था, वहीं प्रिंसिपल पर भी खीझ थी, जिन्होंने ’बेनिफ़िट आफ़ डाउट’ देते हुये डेविड को कड़ी सज़ा नहीं दी थी। स्वभावत: यह, शिक्षिका को अपनी श्रवण शक्ति पर आक्षेप लगा। हम सब जहाँ डेविड की उद्दंडता पर क्षुब्ध हुये, वहीं, उसकी तुरत बुद्धि से चमत्कृत भी!

इस तरह के बच्चों को, साधारणत: सामान्य कक्षा मॆं नहीं रखा जाता। डेविड को भी विशेष कक्षा (बिहेवियर माडिफ़िकेशन क्लास) में भेजने की व्यवस्था होने लगी। स्कूल का सत्र समाप्त होने से पहले, प्रिंसिपल ने मुझे बुलाया और कहा, " डेविड एक तीक्ष्ण बुद्धि का बच्चा है। उसकी पारिवारिक स्थिति ऐसी रही है कि उसका भावनात्मक विकास ठीक से नहीं हो सका है। इतने छोटे से बालक को बाहर भेजने से पहले हम लोगों को उसे एक मौक़ा और देना चाहिये। तुम नये सत्र में, जब वो दूसरी कक्षा में आये, तो उसे अपने क्लास में रख कर कुछ दिन देखना। यदि परेशानी हुई, तो हम उसे फ़ौरन ही स्थानान्तरित कर देंगे। लिखा-पढ़ी तो हो ही चुकी है। "

--अचला दीप्ति कुमार
क्रमश: (भाग -२ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें)

3 comments:

दिगम्बर नासवा said...

इंतज़ार रहेगा आपके अगले अंक का

पूनम श्रीवास्तव said...

अच्छा संस्मरण ..अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी .
पूनम

विजय तिवारी " किसलय " said...

मानसी जी नमस्कार
आपने अचला जी के संस्मरण "मेरा न्यायधीश" भाग पढाया आभार.मेरी एक मित्र " नीरा राजपाल " जी भी टोरंटो निवासी हैं, वो भी एक अच्छी साहित्यकार और ब्लॉगर भी हैं. मेरी शुभ कामनाएं अचला जी तक पहुंचाने का कष्ट करें
- विजय