Monday, September 21, 2009

इज़ दैट यू?

हर साल एक नया असाइन्मेंट होता है। इस साल भी, किंडर्गार्टन से कक्षा चौथी तक को म्यूज़िक, ड्रामा, आर्ट, आदि पढ़ाने की ज़िम्मेदारी। कभी इतने छोटे बच्चों को सम्हाला नहीं है, तो स्कूल के शुरु होते ही पहला सप्ताह रोज़ स्टाफ़रूम में रोना-धोना मचा रहता था मेरा। मेरे कॉलीग्स के बिना मैं क्या कर पाती, सच, शुरु से ले कर अब तक, हमेशा ही । तो सबने मुझे रिसोर्सेज़ पकड़ाये, सी.डी. दिये, कहा, "बच्चों को संगीत बहुत पसंद होता है। अगर देखो कि वे चंचल हो उठ रहे हैं तो बस सी.डी, चला देना, सब नाचने गाने लगेंगे और फिर शांत हो जायेंगे और तुम आगे पढ़ा सकोगी”। और बस इस मंत्र के चलते, स्कूल में रोज़ नाच-नाच कर बच्चों के साथ, घर आकर सीधे बिस्तर पर होती हूँ, खर्राटों के साथ।

एक सी.डी है जिग्गा जम्प नाम की...और बच्चों को वो ही सबसे पसंद है- उसमें टच योर हेड, टच योर शोल्डर, टच योर नी, और टच योर फ़ीट क्रमश: बढ़ते हुये लय के साथ कर कर के मैं तो आधी धराशायी हो चुकी होती हूँ, और बच्चे, "मिसेज़ चैटर्जी, कैन वी डू इट वन्स मोर?" की मीठी आवाज़ में अनुनय करते हैं, जिसका जवाब ," वाण्ट टु डू दिस अगैन? ओ.के... द लास्ट टाइम..." के अलावा देते नहीं बनता।

इस वीकेंड एक बंगाली शादी थी यहाँ। मुकुट-टोपोर के साथ वर-वधू, और ३ दिन लगातार की मस्ती, सजना धजना, और घूमना। इस चक्कर में इस वीकेंड खाना बनाना रह गया। तो आज स्कूल में लंच मक्डॉनल्ड से ही करना पड़ा। तो मक्डॉनल्ड से लौटते वक़्त, रास्ते में लाल ट्रैफ़िक सिग्नल पर रुकी हुई थी मैं। पास की गाड़ी में १७-१८ वर्षीय लड़कों का दल, खिड़की खुली हुई और पीछे सीट पर एक प्यारा कुत्ता। मुझे देख कर कुत्ता भौंकने लगा तो मैं उस से बात करने लगी, और बस अचानक ही उन लड़कों की हर्ष ध्वनि सुनाई दी," इज़ दैट यू, मिसेज़ चटर्जी? रिमेम्बर अस? टाउन सेन्टर स्कूल?" मैं हैरान-परेशां। वो बच्चे बड़े हो गये हैं, जिन्हें मैंने कक्षा सातवीं में पढ़ाया था। आज गाड़ी चलाते हुये, दाढ़ी मूँछ में, अपनी पुरानी टीचर से अचानक मिल कर फिर बच्चों जैसा ही उच्छास...
" गाइज़, आई कैंट बिलीव दिस...यू पीपल हैव ग्रोन अप सो मच..." इतना ही कह पाई, पहचान भी नहीं पाई सबको ठीक से, कि बस सिग्नल के हरे होते ही वो हाथ हिला कर अपनी दिशा में आगे बढ़ गये।

जाने कब ये किंडर्गार्टन के बच्चे भी देखते ही देखते बड़ॆ हो जायेंगे।आज से सालों बाद शायद ये भी कभी ज़िंदगी के किसी ट्रैफ़िक सिग्नल पर अचानक ही मिलेंगे, दो मिनट रुकेंगे और फिर हाथ हिला कर आगे बढ़ जायेंगे, अपनी मंज़िल की ओर...

8 comments:

Udan Tashtari said...

बड़े तो हम और साधना भी हो गये हैं थोड़े..शायद अगली बार मिलो..तो यही कहो:

" गाइज़, आई कैंट बिलीव दिस...यू पीपल हैव ग्रोन अप सो मच..."

हा हा!!

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

सच तो है समीर,एक ही शहर में रहते हुये भी, सालों बाद मिलेंगे तो ये कहना ही पड़ेगा :-)

निर्मला कपिला said...

ापने पेड को फल लगते देख माली इसी तरह खुश होता है कितना अच्छा लगता होगा जब अचानक कोई मिले और कहे कि उसकी ज़िन्दगी बनाने मे आपने भी एक अहम रोल निभाया है बहुत सुन्दर संस्मरण है बधाई

Udan Tashtari said...

वैसे चिन्ता न करो, मैं भी तुमको और कौशिक को देख कर इससे भी ज्यादा मूंह फाड़ कर कहूँगा यही बात...हा हा!!

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

मानसी जी ,
बहुत ही सुखद अनुभवों से गुजरी है आप ---सचमुच नन्हे बच्चो के साथ काम करना उनके साथ नाचना गाना एक सुखद अनुभव ही तो है ---और बच्चों के साथ कIम करने का एक और सबसे बड़ा फायदा यह की हम अपने सारे तनावों को भूल कर कुछ समय के लिए खुद भी बच्चे बन जाते हैं .---आपको नवरात्र ,ईद ,दुर्गापूजा की ढेरों मंगलकामनाएं हम सभी (पूनम,नेहा ,नित्या)सभी की तरफ से.
हेमंत कुमार

नीरज गोस्वामी said...

अध्यापन तभी तो सबसे नोबल प्रोफेशन कहलाता है...आप के पढाये बच्चे ज़िन्दगी के हर मोड़ पर कभी न कभी टकरा ही जाते हैं...आपने बच्चों की तरक्की देख कौन खुश नहीं होता भला?
नीरज

अनूप शुक्ल said...

बेहतरीन पोस्ट! इस तरह के संस्मरण स्कूली बच्चों से जुड़े लिखते हुये तुम्हारी पोस्ट मुझे सबसे अच्छी लगती हैं!

Naveen Singh said...

liked it