ग़ज़ल एक बार फिर -
कहने को तो वो मुझे अपनी निशानी दे गया
मुझ से लेकर मुझको ही मेरी कहानी दे गया
जिसको अपना मान कर रोएँ कोई पहलू नहीं
कहने को सारा जहां दामन ज़ुबानी दे गया
मेरे घर में उस बुढ़ापे के लिए कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया
आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वो ख़ुदा के नाम का क़िस्सा बयानी दे गया
हमने तो कुछ यूँ सुना था उम्र है ये प्यार की
नफ़रतों का दौर ये कैसी जवानी दे गया
उस के जाने पर भला रोएँ कभी क्यों जो मुझे
ज़िंदगी भर के लिए यादें सुहानी दे गया
याद है कल ’दोस्त’ हम तो हँसते-हँसते सोये थे
कौन आकर ख़्वाब में आँखों में पानी दे गया
कौन आकर ख़्वाब में आँखों में पानी दे गया
15 comments:
"हमने तो कुछ यूँ सुना था उम्र है ये प्यार की
नफ़रतों का दौर ये कैसी जवानी दे गया"
बहुत खूब !! बधाई !
क्या खूब लिखा है
मेरे घर में उस बुढ़ापे के लिए कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया
बहुत सुन्दर
उफ़्फ़ क्या क्या न कह गये आप अपने अंदाज में,
आपके फ़साने दास्तां, शबदों की रवानी दे गया ॥
क्या-क्या सोच लेता है मन इस तरह से। आज सुबह सुबह यह गजल पढ़कर अच्छा लगा।
bahut hee sunder rachana . badhai
अच्छी गजल। सच है जो हमें जवानी देता है, उसी के लिए आज कमरा नहीं है।
अच्छी गजल। सच है जो हमें जवानी देता है, उसी के लिए आज कमरा नहीं है।
हमने तो कुछ यूँ सुना था उम्र है ये प्यार की
नफ़रतों का दौर ये कैसी जवानी दे गया
BADHAAI HO RACHNA PRAKAASHAN PAR ... LAJAWAAB GAZAL HAI ...
"आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वो ख़ुदा के नाम का क़िस्सा बयानी दे गया"
मौजूँ पंक्तियाँ । बेहद खूबसूरत गज़ल । आभार ।
लाजवाब रचना है
बधाई हो
आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वो ख़ुदा के नाम का क़िस्सा बयानी दे गया
बहुत सुन्दर!
याद है कल ’दोस्त’ हम तो हँसते-हँसते सोये थे
कौन आकर ख़्वाब में आँखों में पानी दे गया
ये पंक्तियाँ तो जिन्दगी मे रवानी दे गयी!
मेरे घर में उस बुढ़ापे के लिए कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया
उस के जाने पर भला रोएँ कभी क्यों जो मुझे
ज़िंदगी भर के लिए यादें सुहानी दे गया
आपके ये शेर बरसों बरस जिंदा रहेंगे...पंकज सुबीर जी कहा करते हैं की "ऐसे शेर लिखे नहीं जाते ऊपर से आते हैं..." बेहतरीन ग़ज़ल के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया...
नीरज
आपकी इस ग़ज़ल के तो हम भी पुराने मुरीद रहे हैं। जनसता के इस वार्षिकी का आदेश दे दिया है...बधाई!
ग़ज़ल है ही ये ऐसी कि किसी भी पत्रिका में ्छपती भेजे जाने पर!
मानसी जी
हायकू का शुरूआती प्रयास था........ अपने एक मित्र कमलेश भट्ट के उकसाने पर यह कम कर डाला मगर आपकी टिप्पणी के बाद हायकू के मतलब और उसके शिल्प को समझने का प्रयास कर रहा हूँ.....
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