Wednesday, January 13, 2010

लौटा रहा हूँ

जाने कितना कुछ अधूरा पड़ा होता है। कई शेर, कई बिंब, कई कहानियाँ....ऐसे ही अपनी फ़ाइल टटोलते हुये, अधूरी कहानी की कुछ पंक्तियाँ दिखीं। कभी कहानी बढ़ी नहीं...कुछ लिखने बैठो तो कई बार वह प्रवाह नहीं रह जाता और वह सेव हो कर पुरानी फ़ाइलों की भीड़ में चली जाती है। उनमें से ही एक-

आख़िरी समय में कुछ उड़ते ख़्याल, कुछ बेशक़्ल यादें पीछा क्यों नहीं छोड़तीं? कानों में रह-रह कर गूँजती है वह आवाज़ें, "आह ख़ाली नहीं जाती, क्या पता क्या असर हो इसका, ख़याल रखना"। कोई साथ नहीं है अभी, बेटी, बीवी, और... वह? वह भी नहीं है...हाँ वह ...जिसने न जाने कितने झूठ सहे थे, और हर वक़्त सच का साथ दिया था। वह सच जो उसे भी पता था कि सच नहीं था। धूप की तरह जली थी वह, पर राख ही बन कर रही थी आख़िर। कितने महीनों, कितने सालों कि पूजा थी... या फिर....? जिस रास्ते पर हम साथ चले थे, मेरे कहने पर, उसकी अनुमति से... अब जाते वक़्त मैं वापस तो नहीं कर सकता उसे वह जो उसने खोया था, उसका ईमां, अपनों के साथ किये धोखे के लिये अपने को कई-कई बार की गई घृणा, प्रेम के नाम पर छल सह कर, छल करके प्रेम की पराकाष्ठा को साबित करने की नाकाम कोशिश...क्या-क्या वापस करूँ?

कराहती बिल्लियों ने नींद खोल दी थी उस दिन। खिड़की पर खड़े उस साये को भूल नहीं सकता मैं। अनदिखा साया, पर मुझे पता है, कोई एकटक चाँद को देख रहा था और उस रोशनी ने जगा दिया था मुझे। पास ही बिस्तर की सलवटें मुस्करा उठी थीं। चाँद में दाग़ जैसे थोड़ा और गाढ़ा हो गया था। और मैं मुस्करा उठा था। उठकर एक कविता लिखी थी, कुछ चांद और चांदनी के बारे में ही। चिट्ठी लिख कर, मुस्कराते हुये बिस्तर के उन सलवटों को थोड़ा और बिगाड़ दिया था मैंने।

कितना ज़हर था उसके मन में ", "आह ख़ाली नहीं जाती, क्या पता क्या असर हो इसका, ख़याल रखना"। उफ़! तीर तीर ज़हर छोड़ रहा है, सालों से...। ये दर्द...सबके चले जाने का दर्द...और मेरे रह जाने का...

रात का आख़िरी प्रहर है, धीरे-धीरे रोशनी होगी, पर मुझे लगता है रोशनी गुम हो रही है। कहीं दूर से आवाज़ आ रही है- भैरवी के आलाप की, मेरा मन थका सा जा रहा है, प्रेम न पा सका, घृणा का अधिकार तक न जीत सका, तबाह की ज़िंदगियों की तबाही लूट रहा हूँ। आँखें मुँद रही हैं, भोर होने वाली है, हाथ में पकड़ा कलम छूटा जा रहा है-

तू रहना जहाँ में यूँ शाद-ओ-आबाद अब
कि लूटीं थी खुशियाँ जो लौटा रहा हूँ। 

--मानोशी
 

4 comments:

Udan Tashtari said...

फिर से इत्मिनान से पढ़ना पड़ेगा गहराई में उतरने के लिए..आते हैं..

दिगम्बर नासवा said...

यादों को परत दर परत खोलना कितना सुखद होता है कभी कभी ......... बहुत अच्छा और गहरा लिखा है ......

abcd said...

#छल करके प्रेम की पराकाष्ठा को साबित करने की नाकाम कोशिश..

#घृणा का अधिकार तक न जीत सका

#मेरे कहने पर, उसकी अनुमति से...

instances of a GREAT WRITER.

Pushpendra Singh "Pushp" said...

बहुत ही सुन्दर रचना
बहुत बहुत आभार