लौट चल मन,
द्विधा छोड़ सब
लौट चल अब |
द्विधा छोड़ सब
लौट चल अब |
सीमायें तज,
भटक-भटक कर
थका चूर है,
घर सुदूर है,
श्रांत मन, चल शांत हो
अब लौट चल...
मधुरामृत की लालसा में,
चाह कर विष किया पान क्यों?
प्रीत भँवर में उलझ कर के
थका चूर है,
घर सुदूर है,
श्रांत मन, चल शांत हो
अब लौट चल...
मधुरामृत की लालसा में,
चाह कर विष किया पान क्यों?
प्रीत भँवर में उलझ कर के
मिथ्यानंद से
किया स्नान क्यों?
ग्लानिसिक्त यह रुदन छोड़ कर
अब झूठे सब बंध तोड़ कर
अश्रु ले कर, अंजुरि में भर
लौट चल मन...
ग्लानिसिक्त यह रुदन छोड़ कर
अब झूठे सब बंध तोड़ कर
अश्रु ले कर, अंजुरि में भर
लौट चल मन...
विहगवृंद संग
क्षितिज पार तू
सुवर्ण रेखा स्पर्श करने
सुवर्ण रेखा स्पर्श करने
बंधु घुलमिल जोड़
श्वेत पर
चला कहाँ मन किसे हरने?
स्वप्न बाँध अब किस झोली में
नश्वर तारों की टोली में
चला कहाँ मन किसे हरने?
स्वप्न बाँध अब किस झोली में
नश्वर तारों की टोली में
वेष आडंबर
आलिंगन कर
क्या मिलता सब?
लौट चल अब...
15 comments:
मानसी जी!
कविता की माला में शब्दों को बहुत करीने से पिरोया है आपने!
एक बार चर्चामंच भी देख लें यहाँ भी आपकी कुछ सामान है, आपकी ही धूम है।
http://charchamanch.blogspot.com/2010/01/blog-post_2431.html
सुन्दर भाव...हम तो आज भी इसी उहापोह में हैं...अब लौट चल...
जन्म दिवस की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.
सीमायें तज
भटक-भटक
थक कर चूर
घर से दूर
श्रांत मन हो शांत
लौट चल अब
जनमदिन पर ऐसी भावाभिव्यक्ति!?
बी एस पाबला
शास्त्री जी:- शुक्रिया। आपने परी कथा को अपनी चर्चा में स्थान दिया, बहुत अच्छा लगा।
समीर: इस धरती ने भी हमें बहुत कुछ दिया है, हमारे सपनों को एक आकार दिया है, इस बात से इंकार नहीं, पर हाँ, मां तो मां होती है, दूर हो या पास, यह भी सच है।
पाबला जी: आपका फ़ोन पर मेसेज मिला- धन्यवाद। मुझे तो आप अचंभित ही किये जा रहे हैं, पहले जन्मदिन ब्लाग पर, फिर फ़ोन...धन्यवाद।
ये कविता २००४ की लिखी हुई है। जन्म दिन पर तो कुछ और पक रहा है :-)
हा हा
मानसी जी,
भारतीय समयानुसार फोन तो ठीक 12 बजे किया गया था, बधाई पोस्ट उसके बाद आई है 4:30 पर
सरप्राईज़ इसे ही तो कहते हैं ना!?
लगता है इस बार जनमदिन पर कुछ खिचड़ी पक रही है :-)
बी एस पाबला
मधुर अमृत की लालसा में
चाह कर विष किया पान
प्रीत भँवर में उलझ कर
मिथ्यानंद से किया स्नान
ग्लानिसिक्त रुदन छोड
अब झूठे सब बंधन तोड़
अश्रु संचय
कर अंजुरि में
लौट चल म
बहुत सुन्दर शब्द शिलप और भाव वन्दना बहुत अच्छी बन पडी है शुभकामनायें
HAR PRAWAASI KE DIL KO CHEER KAR RAKH DIYA AAPNE ..... DESH KI MITTI KA LAGAAV KAM NAHI HOTA ... SATY KI KATHOR DHARATAL PAR INSAAN BAS SOCHTA HI RAHTA HAI .... BAHUT BEHATREEN LIKHA HAI ...
जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं......!!
--
शुभेच्छु
प्रबल प्रताप सिंह
कानपुर - 208005
उत्तर प्रदेश, भारत
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... सुन्दर व प्रभावशाली रचना !!!!
इस मन को बहुत ही खुबसूरत
शब्दों में पिरोया है आपने
बहुत बहुत आभार
लौट चल मन
दुविधा छोड़ सब
लौट चल अब
सीमायें तज
भटक-भटक
थक कर चूर
घर से दूर
श्रांत मन हो शांत
लौट चल अब
Kya gazab rachna hai!
नश्वर तारों की टोली में
मिथ्या वेष धर
आलिंगन कर
मिलेगा क्या मन
अब लौट चल
आपकी कविता का शिल्प सशक्त है. आपने करीने से शब्दों और भावों को पिरोया है.
बहुत सुन्दर कविता
चला मन तू किसे हरने
सपनों को
बांधे झोली में
नश्वर तारों की टोली में
मिथ्या वेष धर
आलिंगन कर
मिलेगा क्या मन
अब लौट चल
hamesha man ko yahi samjhaya hai
pata nahi kab samjhega
bahut sunder bhavuk kavita
सुंदर रचना...अपनी-सी।
बहुत सुन्दर शब्द शिलप और भाव वन्दना बहुत अच्छी बन पडी है शुभकामनायें
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