कई छोटी-छोटी बातें होती ही रहती हैं। कल रीसेस के समय दो बच्चियाँ मेरे पास आईं, " आपके लिये हमने एक केक बनाया है...चॉकोलेट आइसिंग वाला"। मैंने कहा अच्छा? वो कैसे? तो पता चला कि रीसेस में उन्होंने खेलते हुये मिट्टी और पत्थर से मेरे लिये एक केक बनाया था। तो वो चाहतीं थी कि मैं उस केक को काटूँ। तो भई हम ने भी उस केक को काटा...कहा, कितना सुंदर है...आदि :) बच्चियों की चेहरे की खुशी देखते बनती थी।
सराहना बच्चों के लिये बहुत बड़ा प्रोत्साहन का काम करती है। प्रोत्साहन भी दो तरह के होते हैं- एक प्रोत्साहन वह कि बच्चे किसी चीज़ की आशा में अपना काम करें। यह अच्छी बात है मगर दूसरा प्रोत्साहन वह जो कि जो अन्दरुनी परिवर्तन लाये। बच्चा खुद अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर उस काम को करे, किसी प्राइज़ की आशा में नहीं। सराहना करते वक़्त सिर्फ़ इतना कह देना कि ’वाह बहुत अच्छा जवाब दिया’ और एक "गुड" लिख देना काफ़ी नहीं होता। साथ में ये भी बताया जाये कि क्या अच्छा था जवाब में। इसके अलावा भी जवाब में और क्या होना चाहिये था कि जवाब और अच्छा होता। कक्षा में गलत जवाब के लिये कभी भी सज़ा नहीं दी जानी चाहिये। सज़ा भला क्यों? कि उसे जवाब नहीं आया? या उसका ध्यान नहीं था पढ़ाई में। अगर बच्चे को नहीं आता कोई जवाब तो मौका दिया जाये कि वो अपने साथी के साथ मिल कर जवाब तलाशे और फिर खुद इन्जडिपेंडेट्ली जवाब दे। इस तरह बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ता है। सज़ा ( वह भी ऐसी जिससे बच्चा कुछ सीखे) सिर्फ़ व्यवहार या अन्य वाजिब वजह से दी जानी चाहिये। जैसे मेरी कक्षा में बच्चे कोई काम करना भूल जायें (जैसे रीडिंग लॉग या स्कूल डायरी न साइन करवाई हो अनुभावकों से) तो ज़रूर सज़ा मिलती है उन्हें कि वो अपना काम याद रखें अगले दिन के लिये। उन्हें अपने मूल्यवान रीसेस के आधे घंटे में से २ मिनट देने होते हैं यानि सभी मित्रगण खेलने गये पर वो दो मिनट बाद जायेंगे। और जो बच्चे यह सब साइन करवा के लायें, उन्हें एक स्टिकर मिलेगा और ३० स्टिकर इकट्ठा कर लें वे तो एक प्राइज़। हाँ होमवर्क न करे कोई, तो रीसेस में मेरे साथ बैठ कर करना होगा होमवर्क...! प्राय: सभी बच्चे अपना काम करते हैं इस तरह।
कल एक बच्ची का जन्मदिन था मेरी कक्षा में। मेरे पास एक बक्सा है, छोटा सा कार्ड्बोर्ड का। बच्चे जानते हैं कि टीचर का यह ट्रेशर बॉक्स किसी के जन्मदिन पर खुलता है या टीचर बहुत खुश हो किसी के व्यवहार से तो ही। तो उस वक़्त उस बच्चे को उस ट्रेशर बॉक्स से आँख बंद कर के कोई भी चीज़ चुनने का मौका मिलता है। वह एक छोटी सी किता ब भी हो सकती है, कोई पेन या कोई खिलौना भी। बच्चे नहीं जानते कि उस बक्से के अंदर क्या है। देखा जाये तो यह सब बाह्य प्रोत्साहन हैं (extrinsic motivation) लेकिन कई बातों के लिये बहुत कारगर। बच्चे द्वारा किये गए किसी भी अच्छे काम की सराहना और यह बताना कि वो काम क्यों अच्छा था, इसके क्या अच्छे फल हुये अन्दरुनी प्रोत्साहन का उदाहरण है। उसी को नियम बना लेना बच्चों की आदत में ढल जाता है फिर। पूरे जीवन के लिये एक अच्छी शिक्षा।
फिर अगले सप्ताह की शुरुआत होगी। बच्चों की खिलखिलाहट सुनने को मिलेगी और उनके सप्ताहांत के अनुभव सुनने को। मैं भी उन्हें बताने को उत्सुक हूँ कि इस सप्ताहांत मेरी पिट्स्बर्ग की यात्रा, रंगीन पेड़ों को देखते हुये कैसी रही...। फिर फ़ॉल कलर्स पर कुछ चित्र बनाने का आर्ट प्रोजेक्ट उसी से संबंधित...
6 comments:
बच्चों से मन लगा कर बातें करना अच्छा लगता है।
बहुत बढि़या पोस्ट। बच्चों की सही देखभाल के लिए पहले बाल मनोविज्ञान को समझना पड़ता है। आपकी पोस्ट बहुत देर बाद आती है, लेकिन दुरुस्त आती है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
हमारी बधाई स्वीकारें ||
http://dcgpthravikar.blogspot.com/2011/10/blog-post_10.html
http://neemnimbouri.blogspot.com/2011/10/blog-post_110.html
bacchon ke manobigyan ko samajhna atyant jaruri hai..sunder sandesh deti sarthak rachna..sadar badhayee aaur amantran ke sath
bacchon ka manobigyan samajhna bahut jaruri hai..sarthk post
परम आनंद की प्राप्ति हुई इस रचना को पढ़ कर...क्या अद्भुत लिखा है...वाह
नीरज
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