किताब के खोलते ही, कई पंख, नीलकंठी सरक कर गिर जाते है ज़मीन पर। उठा कर देखती हूँ। हरे, नीले, सुनहरे रंगों से जड़े मोरपंख...
’कितकित’, ’बूड़ी छू",’पोशम्पा भाई पोशम्पा’...हवा में गूँजती नीलू, पीयू, और मेरी खिलखिलाहटों से जड़ा मोर पंख...सहेज कर, उसे सहला कर फिर करीने से अपनी जगह वापस रख देती हूँ।
’अब तो माधव मोहे उबार’, राग कीरवाणी...तबले की थाप पर अल्हैया बिलावल के तानों का अभ्यास...सा, रे, ग, म... छोटी सी बच्ची के सर लगा मोर पंख...
मां से बहस, बड़े भाई की डाँट, दोस्तों के साथ ठहाके... उस सोलह साल की उम्र का मोर पंख, ख़्यालों के जगत का मोर पंख...
बिस्मिल्ला खां की गूँजती शहनाई, हज़ार सपनों के रंगीन आस्मां में उड़ते मोर पंख...
ज़िंदगी में ख़ुशी और ग़म के रास्तों पर चलते हुये, कभी ख़ुशी में डुबोया हुआ, तो कभी आँसुओं से भीगा मोरपंख...
एक नन्हें फ़रिश्ते के हाथ से छीना हुआ मोर पंख...ओह! इसकी जगह शायद पहले पन्ने के पास है... इस बार चिपका कर रख दूँगी...
आज से सौ साल बाद कभी बैठ कर गिनूँगी फिर ये मोर पंख...कुछ नये रंगों से सजे...क्या पता एक आज ही जुड़ा हो शायद...
3 comments:
kahi dil ko chutilikhavt aur morpankhi bhav sundar
ये बातें तो बड़ी गहराई में उतर रहीं हैं जी!! क्या कहें.
"उस सोलह साल की उम्र का मोर पंख, ख़्यालों के जगत का मोर पंख..."
बहुत कुछ कह दिया इस एक वाक्य ने और बहुत कुछ याद भी दिला दिया.
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