खिल रही खिल-खिल हँसी
जीवन हुआ फूलों भरा,
शाम कोई ढल रही है
विहँसती है नवधरा |
अंकुरित से स्वप्न थे जो
नींद से अब जग रहे,
राह पथरीली रही
निश्चय सदैव अडिग रहे,
बहुत थी दुश्वारियाँ
आसान कुछ भी था नहीं,
थे फफोले पाँव में पर
स्थिर हमारे पग रहे,
बादलों के ओट से जो झाँकती है रोशनी,
खुल रहा मौसम चलो अब
छंट रहा है कोहरा |
मैं चली निर्बाध गति
जिस ओर नदिया ले चली,
नाव काग़ज़ की रही पर
दूर तक खेती चली,
था किनारा ही नहीं कोई
क्षितिज के छोर तक,
सुनहरी आभा लुभाती
स्वयं के माया छली,
काट कर सब रेशमी जाले
छलावे तोड़ कर,
एक निश्चित ठौर ढूँढे
अब कहीं मन बावरा |
साँझ ढलती है मगर इक
अजब सा अहसास है,
छूटता है वो कभी जो दूर था
पर पास है,
कुछ हृदय में मच रही हलचल
कहीं इक दर्द है,
पर सवेरा धवल होगा
यह बड़ा विश्वास है,
भूल पाना भी विगत को
कब सहज होता मगर
‘गर कदम हों दृढ़, सुना है,
समय देता आसरा |
--मानोशी
4 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " यूरोप का नया संकट यूरोपियन संघ... " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-06-2016) को "विहँसती है नवधरा" (चर्चा अंक-2383) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद खूबसूरती से लिखा गया ..:)
भूल पाना भी विगत को
कब सहज होता मगर
‘गर कदम हों दृढ़, सुना है,
समय देता आसरा |
वाह बहुत सुंदर संघर्ष से ही मिलती है मंजिल।
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