कल शाम अचानक
एक भँवर सा उठा
बहुत देर तक
तेज़ हवा के साथ
उड़ती रही चिन्दियाँ
गोल गोल, आकार लेकर
एक बन
और थोड़ी देर बाद
झिझकते सूरज जैसे
वो भँवर भी उसके संग
धूमिल हो गया
और फिर शांत... अचानक सबकुछ
बिल्कुल शांत।
मगर वो चिंदियाँ, अभी भी
बिखरी पड़ी हैं,
यहाँ वहाँ
6 comments:
बढ़िया मानसी जी, सिलसिला चाहे बून्दो का हो या यादों का, एक बार शुरु हो जाए तो बड़ी मुश्किल से रुकता है, इसी तरह तूफान चाहे समुद्र का हो या ज़िंदगी का, अचानक ही आता है लेकिन अपने पीछे निशान छोड़ जाता है।
भावाभिव्यक्ति में सफ़ल है आप
मानुषी बहुत सुन्दर! पहली वाली बहुत अच्छी लगी.
मुझे भी पहली वाली कविता ज्यादा अच्छी लगी ..
काफ़ी 'गुलज़ारिश' सी है ......
मनोशी,
आपकी यह कवितायें बहुत अच्छी लगी.सैलाब के पहले और बाद में अजीब सी शांती है, और इन दोनों के बिच तुफ़ानी सैलाब.....मन के भावों को खूब अच्छी तरह ,बिना कुछ ज़्यादा कहे व्यक्त किया है.सच है कि चिंदियां हर सैलाब के बाद रह जाती हैं.यादोण को खूब अच्छी तरह पेश किया है.
अहा सुंदर रचना. वो बूंद लाख तूफ़ानों के बीच भी अपनी मौजूदगी का अहसास कराती है. मैं जहां तक समझा हूं तो यही कहूंगा कि वो इक बूंद ही दिल मे बीती यादों का सागर उठाने का माद्दा रखती हैं.. ऐसी बारिशों में अकसर वो बारिश याद आ ही जाती है.. कभी ये बूंद उसी बारिश का हिस्सा थी जो ना चाहते हुए भी जिंदगी का हिस्सा बनी हुई है.
Hey enjoyed ur blogs... should read more of them..just read couple of them
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