Sunday, March 18, 2007
मीरा नायर की फ़िल्म 'द नेमसेक'
इस सप्ताहांत में 'द नेमसेक' देखी। तबू और इरफ़ान ख़ान का मंजा हुआ अभिनय और कहानी को बिल्कुल उपन्यास से लेकर ज्यों का त्यों दर्शकों को परोस देना ही शायद इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत है। प्रवासी भारतीयों के जीवन पर आधारित ये कहानी, वास्तविकता के बहुत क़रीब है और हर प्रवासी भारतीय कहीं इस सिनेमा मे अपनी छवि देख सकता है।
अशीमा (तबू) का विवाह होता है अमेरिका मे बसे युवा प्रोफ़ेसर अशोक (इरफ़ान) के साथ। अशीमा के लिये अपने लोगों को छोड़, विदेश में पति के साथ अकेले इतनी दूर अमेरिका आ कर ज़िन्दगी शुरु करना आसान नहीं। मगर धीरे धीरे अमेरिका की ज़िंदगी में खुद को ढाल लेती है अशीमा। बेटे के जन्म के बाद अशोक अस्पताल में अपने बेटे का नाम दर्ज कराते हैं महान रूसी लेखक निकोलाई गोगोल के नाम पर, गोगोल। बेटा गोगोल (काल पेन) और बेटी सोनिया के जन्म के साथ ही और भी रंग जुड़ने लगते हैं अशीमा और अशोक की ज़िंदगी में। बच्चे अमेरीकी परिवेश में बड़े होने लगते हैं और यहीं के तौर-तरीक़े अपनाने लगते हैं। बड़े होते गोगोल को अपना नाम पसंद नहीं। सभी दोस्त उसे उसके नाम का अर्थ पूछते हैं और कुछ अजीब से इस नाम का मज़ाक भी उड़ाते हैं। दुनिया में हज़ारों अन्य सुंदर भारतीय नामों के होते हुये अशोक ने आख़िर अपने बेटे का नाम गोगोल क्यों रखा? क्या गोगोल अपना नाम बदल लेगा? अशीमा की ज़िंदगी में आगे क्या होगा?
अशोक, अशीमा, और गोगोल के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी की लेखिका हैं पुलित्ज़र पुरस्कार की विजेता सुश्री झुमपा लाहिड़ी और इस सिनेमा का निर्देशन किया है मानसून वेडिंग व सलाम बांबे की निर्देशिका मीरा नायर ने। एक बहुत अच्छी फ़िल्म जिसको कलाकारों के सशक्त अभिनय ने चार चाँद लगा दिये हैं, यक़ीनन आपका भी मन छू लेगी।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
5 comments:
मुझे तो किताब बिलकुल अच्छी नहीं लगी थी । झुम्पा लाहिडी की पहली किताब 'इंटरप्रेटर अफ मलैडीज़" बहुत अच्छी लगी थी , नेमसेक , मज़ा नहीं आया ।
कल जाना है इस मूवी को देखने...तब बताया जायेगा कैसी लगी. :)
अब तुम्हारी बात सुनें या प्रत्यक्षा की ?????
hmmmmmmmmmm
कल जा कर फ़िल्म देखी , सच में कहूँ तो कुछ निराशा से हुई । फ़िल्म अच्छी है लेकिन इतनी नहीं जितनीं तारीफ़ सुनी थी । मीरा नैयर जी की पिछली कुछ फ़िल्में ('मानसून वेडिंग', सलाम बोम्बे और 'मिसिसिपि मसाला' ज़्यादा अच्छी लगी थीं।
फ़िल्म अधिक अच्छी न लगनें के कारण :
१. इरफ़ान का अभिनय और और उन का किरदार । फ़िल्म के शुर में ठीक है लेकिन २५ वर्ष अमेरिका में रहनें की बाद भी उन मे आत्मविश्वास की कमी सी लगती है । ऐसे प्रोफ़ेसर कम ही देखनें को मिलते है ।
२. फ़िल्म में गहराई और एक central theme की कमी . कहानी किस की है , आशिमा की , गोगल की या ?????| कई बात सतही सी लगती हैं ।
खैर ये मेरी निजी राय है । इंटरनेट का यही फ़ायदा है ना , पूरी तरह से प्रजातांत्रिक ।
हां टोरोंटो आयेंगे तो चाय तो मिलेगी ना ?
मानसी जी
आपके ब्लोग पर ज्योतिष के बारे मे पढ कर मै भी कुछ कुछ लिख रहा हू कृपया गौर फरमाये http://vaidikjyotish.blogspot.com/ हालाकि मै आपके जितना इस विषय पर नही जानता पर यदि आप फिर से ज्योतिष पर लिखना आरम्भ करे तो हमारे जैसो को खुशी होगी व हमारा ग्यान बढेगा
Post a Comment