Sunday, June 29, 2008

प्रिंसिपल सर

आज सालों बाद किसी ऐसे व्यक्ति से बात हुई जिन्होंने मेरे जीवन में बहुत अहम भूमिका निभाई। मेरे स्कूल के प्रिंसिपल सर, श्री जे. पी. राई। आरकुट नाम के वेब साइट पर उनके बेटे का प्रोफ़ाइल देखा तो उससे उसके पिता का फोन नम्बर मिला। सालों पहले उनकी तबीयत खराब होने की बात भी सुनी थी तो ज़रा चिन्ता भी थी। मेरे प्रिन्सिपल सर संस्कृत के छात्र थे और अपने क्षेत्र के महान जानकार। तो खैर, फ़ोन नम्बर मिलते ही मैंने फ़ोन लगाया। "सर, मैं आपको नहीं बताऊंगी कि मैं कौन हूँ, आप बताइये" और मैं ने उन्हें दो चार बातें अपने बारे में बतायीं तो उन्होंने मुझे झट पहचान लिया। उनसे कोई ४० मिनट बात हुई और पुराने दिन ताज़ा हो गये।

मुझे याद है, मैं स्कूल में हिन्दी कवितायें लिखा करती थी। उन कविताओं में अक्सर ही ज़माने की बुराइयों का उल्लेख होता। मेरे सर उन्हें पढ़ कर हमेशा कहते थे कि तुम्हरी कविताओं के ज़रिये अगर तुम किसी 'नेगेटिव' बात को बताना चाहती हो तो उसका आखिरी में किसी आशा, या किसी 'पाज़िटिव' बात से अंत करो। उस वक्त लगता कि सर सिर्फ़ मेरी क्रिटिसिज़्म कर रहे हैं। बाद में, और लिखते हुये मैंने इन बातों का मतलब गंभीरता से जाना और समझा। कक्षा नौंवीं में मैंने उस वक्त एक कविता लिखी थी जिसमें आज के युग का वर्णन था कि कितनी बुराइयाँ है इस युग में।

कविता तो अब पूरी याद नहीं..कुछ यूँ थी शायद...

दुनिया की रीत यही है
बुराई की ही जीत सही है
इस जग में सब छल के नाते
सच्चाई की न जीत रही है
दुनिया की रीत यही है

एक युग में थे राम हुये जब
सत्य की महिमा थी गायी जाती
आज के इस युग में तो बस
झूठ के ही गाये गीत सभी हैं
दुनिया की रीत यही है ... आदि आदि

हमारे स्कूल के असम्बली में सुबह मैंने यह कविता पढ़ी और सर चुपचाप सुनते रहे, एक शब्द भी नहीं कहा...मगर फिर मैंने अपनी आखिरी पंक्तियाँ पढीं...

पर,
कहें भले ही संतान तेरे
वे नहीं तेरे, बल्कि विदेशी चेरे
लौटेंगे एक दिन वो घर को तेरे
क्यों कि माँ तो बस एक यही है
और यही दुनिया की रीत रही है...

और फिर सर ने उस कविता को खूब सराहा और उस कविता को केंद्रीय विद्यालय संगठन की पत्रिका में छपवाया और मुझे उस कविता के छपने के २५ रुपये पुरस्कार के भी मिले।

सर ने हमेशा ही बहुत प्रोत्साहन दिया मुझे हर चीज़ में। उनके गुरु थे श्री जगन्नाथ साहू। हम सब उन्हें भैया जी कहा करते थे। वो भी संस्कृत के महान ज्ञाता थे और अंग्रेज़ी के महारथी । रिटायर्ड थे तो हमारे स्कूल में आकर हमें अपनी इच्छा से अंग्रेज़ी पढाते थे। क्यों कि मेरे संस्कृत के उच्चारण ठीक थे, तो वो और प्रिन्सिपल सर हम ४ लड़कियों को हर शाम एक घंटे संस्कृत स्तोत्र सिखाया करते थे। हमने कोई कुल मिला कर २०-२५ संस्कृत के स्तोत्र सीखे होंगे। सही छंद, उच्चारण आदि पर बहुत ज़ोर दिया करते थे भैया जी। शिवतांडव स्तोत्र, भवान्यष्टकम आदि तो आज भी मुझे पानी की तरह कंठस्थ हैं और ये जीवन की एक पूंजि बन कर मेरे साथ हैं।

मेरे हर अचीवमेंट के साथ सर मेरे घर अपना आशीर्वाद देने मुझे आते। कक्षा बारहवीं बोर्ड में मैंने अपना केमिस्ट्री का पेपर बिगाड़ा था, और बड़ा ही डर था मुझे मेरे रेसल्ट का। सर के सामने मैं हर वक्त रोती रहती थी। मगर सर का विश्वास काम आया और मैंने अच्छे अंकों से बारहवीं पास की।

मेरे प्रिन्सिपल सर सुभाष बोस के प्रशंसक थे। जब उनके मृत्यु के बारे में कई अटकलें लगाई जाती थीं तो वो कहते थे कि कुछ प्रतिभायें ऐसी होती हैं जो छुप कर नहीं रह सकती। सुभाष बोस भी कुछ ऐसे ही व्यक्ति थे। वो अगर ज़िंदा होते तो छुप कर नहीं रह पाते। मुझे उनकी ये बात हर किसी के लिये सही लगती है। मैंने देखा है कि जो बच्चा स्कूल में प्रतिभाशाली होता है, आगे जीवन में भी उसकी प्रतिभा उसे आगे लाती है। 'लीडर' हमेशा ही 'लीडर' होता है, क्या ग्राम, क्या शहर।

आज सर के बारे में बात करते हुये मेरे इस पोस्ट में शायद दो बातों में कड़ी ढूँढ पाना मुश्किल हो, मगर अभी विचार इस तरह से उमड़ रहे हैं कि सब को सही तरीके से गूँथने के लिये कुछ दिन लग जायें शायद। जब भी मैं भारत जाती हूँ और वहाँ सबको पता चलता है कि मैं आ रही हूँ , सबका कहना होता है, " हमारे घर भी आना" चाहे वो भारत के दूर दूर कोनों में कहीं रहते हों। सुन कर अच्छा लगता है पर कहाँ जाना हो पाता है हर किसी के घर मिलने। आज मुझसे पहली बार किसी ने कहा कि तुम भारत आओगी तो बताना, हम तुमसे मिलने आयेंगे, कलकता हो तो भी।

सर से उनके अनेक छात्रों के बारे में बात हुई। अपने छात्रों की उपलब्धियाँ गिनाते हुये उनका गर्व से स्वर भर आ रहा था। इस बार भारत जा कर शायद उनसे मुलाकात हो फिर। शिक्षकों का हर किसी के जीवन में एक बहुत बड़ी भूमिका होती है। मैं खुशनसीब हूँ जो मुझे भी कुछ हद तक इस भूमिका को निभाने का मौका मिला है। आज से १५ साल बाद जब मुझे मेरे किसी छात्र का फ़ोन आयेगा तो मैं भी समझूँगी कि मैंने भी उस छात्र के जीवन को कहीं न कहीं कुछ तो सँवारा होगा जो इतने सालों बाद भी वो मुझे भूला नहीं। और शायद वही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

5 comments:

Udan Tashtari said...

सही है, कुछा लोग हमारे जीवन पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं.
आज से १५ साल बाद जब मुझे मेरे किसी छात्र का फ़ोन आयेगा ........शुभकामनाऐं.

सुशील छौक्कर said...

आपने दिल के जज्बातो को खोल कर रख दिया। हर इंसान की जिंदगी में माँ बाप के बाद टीचर का रोल बहुत ही मह्त्वपूर्ण होता है। मेरे भी एक टीचर है नाम बदल यही पोस्ट की जा सकती है उनकी याद में। अपनी तीसरी कविता मैने उन्हीं पर ही लिखी थी। मुझे जिंदगी में ऐसा इंसान दूसरा कोई नही मिला आज तक। वैसे ये कायदा नही बनता कि मै वह कविता आपको पढने को बोलू पर आपने एक टीचर को याद किया बहुत कम लोग होते है जो टिचर को याद रख पाते है।
आपने याद किया मन खुश हुआ। लिंक दे रहा हूँ हमारी भावनाऐ भी पढीये जब भी समय मिले।
http://meri-talash.blogspot.com/2008/03/blog-post_14.html#links

chavannichap said...

bahut hi bhavpoorna..aatniya anubhavon se bheega...
http://www.chavannichap.blogspot.com/

Unknown said...

बहुत सुन्दर, संस्मरण

Dr. Amar Jyoti said...

हम सभी के जीवन में कोई न कोई प्रेरक व्यक्तित्व होता है। परन्तु उसकी स्म्रतियों की इतनी भावपूर्ण
कितने लोग कर पाते हैं? बहुत ख़ूब!