Sunday, November 02, 2008

समय



ठंडी हवा, अक्तूबर की...सिहरन सी दे जाती है। झरते लाल पते, पीले भी और कहीं कुछ हरे। हरे पत्तों का अभी झरने का समय नहीं हुआ है। सारे हरे पत्ते नहीं झरे, अभी भी लाल हो जाने की आशा में बैठे है, समय का इंतज़ार कर रहे हैं। अपने से पहले झर रहे परिपक्व लाल पत्तों को देख् रहे हैं। जानते हैं, यही हश्र है उनका भी, पर खु़शी ख़ुशी तैयार हैं, झर जाने को...इसी लालसा में कुछ तो समय से पहले ही झर गये।
थोड़ा सा पानी, थोड़ी सी बर्फ़, समय बहुत ज़्यादा चला गया शायद। हरी घास बर्फ़ के नीचे दबी पड़ी है, कुछ समय बाद भूरी हो जायेगी, मर जायेगी। फिर नये घास उगेंगे, समय से...चिडि़या चहचहायेंगी, नये डाल पर किसी नये पेड़ के...मगर एक पेड़ मर चुका होगा...पत्तों के कम और ज़्यादा समय लेने के कश्मकश में...दूर से ही...अपने साथ खड़े पेड की ओर ठूँठ बन देखता, एकटक...प्राण भी कभी वापस आते हैं, मर जाने के बाद?

2 comments:

Web Media said...

"प्राण भी कभी वापस आते हैं, मर जाने के बाद?" Life goes on as usual ! You play your part and thats all.

"थोड़ा सा पानी, थोड़ी सी बर्फ़, समय बहुत ज़्यादा चला गया शायद।" It is the way you feel.
Very nice feeling simply divimg deep in mind. Read more and more, the words dive deeper and deeper

Udan Tashtari said...

इअनके मरने से पहले हम भारत चले जायेंगे और जब लौटेंगे तो इन्हें पुनः चहचहाता पायेंगे.

हमेशा चहचहाट ही क्यूँ अच्छी लगती है इन्सान को!! यथार्थ तो दोनों ही है.

अच्छा विचार!!