एक तरंग
समंदर से, आकाश से, धरती से
बहुत गहरी बहुत फैली, बहुत ऊँची
सीमाहीन, अदृश्य, नि:शब्द,
विशाल ब्रह्मांड में
न चाहकर, न जानकर
जोड़ती है
किन्हीं दो साकार
पर अस्तित्वहीन को
चुपचाप
अपनी सत्ता में कहीं।
किन्हीं दो साकार
पर अस्तित्वहीन को
चुपचाप
अपनी सत्ता में कहीं।
3 comments:
bahut khub kuch anat sa kampan bhramand ki tarah
'कम्पन' के पीछे का चिंतन समझ नहीं पाया हूँ,इसलिए थोडा ठहराना पड़ा. यद्यपि कविता का क्रम उसकी गहरी भावान्विति के सम्मुख कोई अर्थ नहीं रखता, परन्तु कुछ अनिश्चित अर्थ विधान के कारण मुझे निस्पृह रह जाना पड़ा. कुछ परिपक्व भी नहीं हूँ कविता की पढ़न के लिए. आपकी कवितायें पढ़ता रहूँगा.
सुंदर रचना...
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