Tuesday, December 16, 2008

ग़ज़ल- वो जो इस घर के लिये सारी जवानी दे गया




कहने को तो वो मुझे अपनी निशानी दे गया
मुझ से लेकर खु़द मुझे मेरी कहानी दे गया

जिसको अपना मान कर रोएँ कोई पहलू नहीं
कहने को सारा जहां दामन ज़ुबानी दे गया

अब उसी के वास्ते घर में कोई कमरा नहीं 
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया

आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वह ख़ुदा के नाम का क़िस्सा बयानी दे गया
.
हमने तो कुछ यूँ सुना था उम्र है ये प्यार की
नफ़रतों का दौर ये कैसी जवानी दे गया

उस के जाने पर भला रोएँ कभी क्यों जो मुझे
ज़िंदगी भर के लिए यादें सुहानी दे गया
.
याद है कल ’दोस्त’ हम तो हँसते हँसते सोये थे
कौन आकर ख्वाब में आँखों में पानी दे गया 
.
ये ग़ज़ल मैंने उस वक़्त जावेद अख़्तर की एक गज़ल की ज़मीं को चुन कर लिखी थी। उस ग़ज़ल का मत्ला कुछ ऐसा था-

जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया
उम्र भर दोहराउँगा ऐसी कहानी दे गया

4 comments:

Himanshu Pandey said...

"आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वो ख़ुदा के नाम का क़िस्सा बयानी दे गया"

आज के वक्त की सच्ची कहानी दे गयीं आप . बहुत प्रभावित किया इस रचना ने .
गौतम जी को धन्यवाद. आप को भी .

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

" dharm guru ke samne pakwano ke der, bap bilkhata roti ko samay ka dekho fer' NARAYAN NARAYAN

नीरज गोस्वामी said...

घर में मेरे उस बुढ़ापे के लिए कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया
बेहतरीन...चलिए गौतम जी के आग्रह से इतनी अच्छी ग़ज़ल पढने को मिली उनके हम आभारी हैं.....आप लिखती बहुत अच्छा हैं...इस आदत को जारी रखिये...अगली ग़ज़ल की इंतज़ार में....
नीरज

गौतम राजऋषि said...

मैम अब किन अल्फाजों में शुक्रिया कहूं,फिर उलझ जाता हूं कि पहले शुक्रिया कहूं कि एक बेहतरीन गज़ल पे जी खोल कर दाद दूं...
ये शेर "घर में मेरे उस बुढ़ापे के लिए कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया"...उस दिन से जाने कितने लोगों को सुना चुका हूं,काश कि कोई जरिया होता कि आप तक अपने तमाम मित्रों की "वाह-वाही" पहुँचा सकता!!

और अब इस शेर के पूरी गज़ल की बारी आयी है

कमबख्त मतला भी ऐसा कहर ढ़ा रहा है कि..मुझ से लेकर मुझको ही मेरी कहानी दे गया..

हम नत-मस्तक हुये