धुँआ-धुँआ सी सुबह... ठिठुरता आसमां... बर्फ़ की शाल ओढ़ कर इधर से उधर भाग रही थी हवा। उस शाल का एक कोना किसी सांस को छू कर निकल जाता और एक लड़ाई छिड़ जाती। गीली धूप को अपनी पीठ पर लादे हुए, उसे सुखाने की कोशिश करता बड़ा सा दिन। मगर सिहर उठता बदन उसका हर सांय की आवाज़ के साथ। रहम की भीख माँगते सूखे तिनकों से टंगे पेड़," बस...और कितना? " कि तभी सन्नाटे को चीरता, किलकारी करता बड़ा सा हुजूम दौड़ता, भागता, हँसता खिलखिलाता मनहूसी को तोड़ता, शोर करता और कहता, "जीवन है यहां, उठो! ... यही तो जीवन है।"
9 comments:
हाँ, बिल्कुल सच कह रही हैं यही जीवन है,
---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
बहुत ही खूबसूरत वर्णन है. आभार.
http://mallar.wordpress.com
जीवन यही है।
क्या... यही जीवन है।????
आप ने कहा तो मान ही लेते है..... वरना तो दुनिया मे और भी है गम!!!
Manochiji,
Apkee is post ko main to shabd chitra hee kahoonga....Geelee dhoop ko apnee peeth par lade huye use sukhane kee koshish karta hua bada sa din...padh kar ek line yad aa gai...Khargosh ke chhaune sa fudakta gungunee dhoop ka tukda..(shayad Nirmal Verma ji kee kisee kahanee men hai).any way bahut sundar shabdachitra ke liye badhai.
Hemant Kumar
sao aane sach....yahi jeevan hai...
धुँआ-धुँआ सी सुबह और ठिठुरता आसमान
सिहरता है ये बदन सुन कर तेरा बयान..
जीवन है यहां,उठो...यही तो जीवन है
बहुत ही अनुपम शब्द- चित्र.
अनूठे गद्य-काव्य का एक सुन्दर प्रयोग.
सादर
द्विज
Manoshi ji,
Apne thandh ko bhee itne sundar shabdon men bandha hai...badhai.
Poonam
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