Saturday, January 24, 2009

चलो...



चलो हम आज
सुनहरे सपनों के
रुपहले गाँव में
घर बसायें ।

झिलमिल तारों की बस्ती में,
परियों की जादूई छड़ी से,
अपने इस कच्चे बंधन को
छूकर कंचन रंग बनायें।

चलो हम आज...

तुम्हारी आशा की राहों
पर बाँधे थे ख्वाबों से पुल,
आज चलो उस पुल से गुज़रें
और क्षितिज के पार हो आयें।

चलो हम आज...

उस दिन चुपके से रख ली थी
जिन बातों की खनक हवा ने,
रिमझिम पड़ती बूँदों के सँग
चलो उन स्मृतियों में घूम आयें।

चलो हम आज...

बाँधी थीं सीमायें हमने
अनकही सी बातों में जो,
चलो एक गिरह खोल कर
अब तो बंधनमुक्त हो जायें।

चलो हम आज
सुनहरे सपनों के
रुपहले गाँव में
घर बसायें


13 comments:

Udan Tashtari said...

चलो...




-बहुत सुन्दर रचना. बेहतरीन.

अनूप शुक्ल said...

चलो लेकिन हमें तो आफ़िस जाना है।

संगीता पुरी said...

चलो हम आज सुनहरे सपनों के
रुपहले गाँव में
घर बसायें
अच्‍छी रचना...

P.N. Subramanian said...

"एक गिरह खोल कर
आज बंधनमुक्त हो जायें"
बहुत ही सुंदर. आभार. आपकी प्रविश्ठियो को सुबह ६ बजे के बाद प्रकट कराया जावे तो अच्छा होगा. ब्लॉगवानी आदि में काफ़ी पीछे चला जाता है और अक्सर हम देख ही नहीं पाते.
http://mallar.wordpress.com

पूनम श्रीवास्तव said...

Manashi ji,
bahut sundar kavita.Prakriti aur bhavon ka achchha samanjasya.badhai.
Poonam

गौतम राजऋषि said...

पहले तो इस सुंदर कविता को पढ़कर
थोड़ा-सा भीगा ये मन
और नजर पड़ते ही
फुरसतिया की टिप्पणी पर
ठठा-ठठा कर
हँसा ये मन....

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Manoshi ji,
Jhilmil taron kee bastee men
pariyon kee jadoo chhadee se
apane is kachche bandhan ko
chhoo kar sone ka banayen....
Vakayee bangal kee mittee se upajee kalpanaon,prakriti se lagav, ka koi javab naheen.sabse badh kar komal shabdon men.
achchhee kavta kee badhai ke sath hee gantantra divas kee dheron mangalkamnayen.
HemantKumar

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाकई चलना ही पड़ेगा....
पहल के लिये साधुवाद..

sanjay vyas said...

badhia, par apne aatmaalaap parak chintan ko aur vistaar dekar rachnaaon ko samaj parak bhi banaae.
shubhkaamnaaen.

Himanshu Pandey said...

"बाँधी थीं सीमायें हमने
अनकही सी बातों में जो
चलो एक गिरह खोल कर
आज बंधनमुक्त हो जायें"

सुन्दर पंक्तियाँ। आशाओं के बहुत से पट खुल गये। धन्यवाद ।

BrijmohanShrivastava said...

अनुपम रचना

हरकीरत ' हीर' said...

हवा ने चुरायी थी उस दिन
हमारी बातों की खनक को
रिमझिम पड़ती बूँदों के संग
चलो उन स्मृतियों में घूम आयें...

अच्‍छी रचना...

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

मैं तो इतना ही कहूँगा कि आप घर बसायें.............हम पीछे-पीछे आ ही रहे हैं..........क्यूँ..........??अरे चाय-वाय पीने........मिठाई-सिठाई खाने........और क्या.........!!