चलो हम आज
सुनहरे सपनों के
सुनहरे सपनों के
रुपहले गाँव
में
घर बसायें ।
झिलमिल तारों की बस्ती में,
परियों की जादूई छड़ी से,
अपने इस कच्चे बंधन को
छूकर कंचन रंग बनायें।
घर बसायें ।
झिलमिल तारों की बस्ती में,
परियों की जादूई छड़ी से,
अपने इस कच्चे बंधन को
छूकर कंचन रंग बनायें।
चलो हम आज...
तुम्हारी आशा की राहों
पर बाँधे थे ख्वाबों
से पुल,
आज चलो उस पुल से गुज़रें
और क्षितिज के पार हो आयें।
चलो हम आज...
उस दिन चुपके से रख ली थी
जिन बातों की खनक हवा ने,
रिमझिम पड़ती बूँदों के सँग
चलो उन स्मृतियों में घूम आयें।
आज चलो उस पुल से गुज़रें
और क्षितिज के पार हो आयें।
चलो हम आज...
उस दिन चुपके से रख ली थी
जिन बातों की खनक हवा ने,
रिमझिम पड़ती बूँदों के सँग
चलो उन स्मृतियों में घूम आयें।
चलो हम आज...
बाँधी थीं
सीमायें हमने
अनकही सी बातों में जो,
चलो एक गिरह खोल कर
अब तो बंधनमुक्त हो जायें।
चलो हम आज
अनकही सी बातों में जो,
चलो एक गिरह खोल कर
अब तो बंधनमुक्त हो जायें।
चलो हम आज
सुनहरे सपनों
के
रुपहले गाँव में
घर बसायें ।
रुपहले गाँव में
घर बसायें ।
13 comments:
चलो...
-बहुत सुन्दर रचना. बेहतरीन.
चलो लेकिन हमें तो आफ़िस जाना है।
चलो हम आज सुनहरे सपनों के
रुपहले गाँव में
घर बसायें
अच्छी रचना...
"एक गिरह खोल कर
आज बंधनमुक्त हो जायें"
बहुत ही सुंदर. आभार. आपकी प्रविश्ठियो को सुबह ६ बजे के बाद प्रकट कराया जावे तो अच्छा होगा. ब्लॉगवानी आदि में काफ़ी पीछे चला जाता है और अक्सर हम देख ही नहीं पाते.
http://mallar.wordpress.com
Manashi ji,
bahut sundar kavita.Prakriti aur bhavon ka achchha samanjasya.badhai.
Poonam
पहले तो इस सुंदर कविता को पढ़कर
थोड़ा-सा भीगा ये मन
और नजर पड़ते ही
फुरसतिया की टिप्पणी पर
ठठा-ठठा कर
हँसा ये मन....
Manoshi ji,
Jhilmil taron kee bastee men
pariyon kee jadoo chhadee se
apane is kachche bandhan ko
chhoo kar sone ka banayen....
Vakayee bangal kee mittee se upajee kalpanaon,prakriti se lagav, ka koi javab naheen.sabse badh kar komal shabdon men.
achchhee kavta kee badhai ke sath hee gantantra divas kee dheron mangalkamnayen.
HemantKumar
वाकई चलना ही पड़ेगा....
पहल के लिये साधुवाद..
badhia, par apne aatmaalaap parak chintan ko aur vistaar dekar rachnaaon ko samaj parak bhi banaae.
shubhkaamnaaen.
"बाँधी थीं सीमायें हमने
अनकही सी बातों में जो
चलो एक गिरह खोल कर
आज बंधनमुक्त हो जायें"
सुन्दर पंक्तियाँ। आशाओं के बहुत से पट खुल गये। धन्यवाद ।
अनुपम रचना
हवा ने चुरायी थी उस दिन
हमारी बातों की खनक को
रिमझिम पड़ती बूँदों के संग
चलो उन स्मृतियों में घूम आयें...
अच्छी रचना...
मैं तो इतना ही कहूँगा कि आप घर बसायें.............हम पीछे-पीछे आ ही रहे हैं..........क्यूँ..........??अरे चाय-वाय पीने........मिठाई-सिठाई खाने........और क्या.........!!
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