Tuesday, February 03, 2009

फागुनी हाइकु

(picture location: Victoria, BC, Canada)


धूप थिरके
वासंती चूनरिया
फागुन आया


बिछा पलाश
चहुँ ओर फागुन
रंग गोधूली

झूमे सरसों
किलक रही हवा
धरा लजाती

कोयल कूके
हरेक दिशा जागी
निठुर पिया

बरसा प्रेम
होरी रंग निराला
भेद मिटाये



पी संग खेले
गोरी जी भर होरी
लाज भुलाये


-

(रचना: २००५ प्रकाशित)

10 comments:

Udan Tashtari said...

अच्छे हाइकु.

गौतम राजऋषि said...

खेले सरसों / बासंती हवा संग / धरा लजाये

...वाह!!!

कोई ऐसी भी विधा है,जिस में आपको मास्टरी नहीं हो????

रंजू भाटिया said...

बरसा प्रेम
होरी के रंग संग
भेद मिटाये

सब एक से बढ़ कर एक है ...बहुत सुंदर फागुनी बसंती रंग में भीगे हुए लफ्ज़ हैं यह ..

परमजीत सिहँ बाली said...

सभी बहुत बढिया हैं !!
यह ज्यादा अच्छा लगा-

डारा पिया ने
ऐसा प्रेम का रंग
छूटे न अंग

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

अद्भुत !!! अति सुंदर हाइकू

रंजना said...

Aaankhon aur man ko sheetal karte chitra aur laghu kavy.

Bahut sundar,badhai.

saraswatlok said...

बहुत अच्छी रचना है।

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Manoshi ji,
apne to hiku ke madhyam se basant,holi...sab kuchh likha .bahut sundar shabd sanyojan.
Hemant

महावीर said...

बहुत ही सुंदर हाइकु हैं। आज तुम्हारे हाइकु पढ़ते हुए पुराने हाइकु का ख़याल आगया
जिनमें तुमने हाइकु में ही हाइकु के नियम बता दिये थे।
बहुत ख़ूब!

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

सबका शुक्रिया मेरी हाइकु को प्संद करने का। हाँ महावीर जी, बहुत ढूँढने पर मुझे वो अपने कुछ हाइकु मिल ही गये- आपको याद रहे, मैं तो भूल चुकी थी :-)

हाइकु के कुछ खास नियम हैं जो हाइकु में ही लिख रही हूं-

सार्थक वो हैं
दृश्य कोई दिखा दे
तीन पँक्तियाँ

वर्ण गिनती
पांच-सात-पांच की
तीन पंक्तियां

हर पँक्ति हो
संपूर्ण अपने में
अर्थ सरल

लँबी सी पँक्ति
तोड़ तोड़ के लिखा
हाइकु नहीं

दिग्गज नहीं
बाँट कर सीखा है
जितना जाना