तुझे यकीं ये हो न हो, मैं दोस्त हूँ तेरा, हाँ सच
ऐ आइना मैं अजनबी सा लगता हूँ तो क्या, हाँ सच
मैं दुश्मनी निभाउंगा तो दोस्ती ही की तरह
मुझे तू आज़मा के देख तो कभी ज़रा, हाँ सच
वो रोशनी की बात करता होगा सबके सामने
मगर उसे भी खुद है अपने दाग़ का पता, हाँ सच
मुझे भी जीतना तो आता है मगर, यूँ हार कर
गु़रूर को तेरे मैं जीतते हूँ देखता, हाँ सच
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे घर में आ के मुझसे है मिला, हाँ सच
वो जाते जाते मुझको ढेरों ग़म तो दे गया मगर
अज़ीज़ है मुझे हरेक अश्क़ जो बहा, हां सच
मैं आज सुर्खियों मे हूँ तो ’दोस्त’ बस तेरे लिये,
तुझे नहीं पता जो कर्ज़ मुझपे है तेरा, हाँ सच
10 comments:
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे घर में आ के मुझसे है मिला, हाँ सच
वो जाते जाते मुझको ढेरों ग़म तो दे गया मगर
अज़ीज़ है मुझे हरेक अश्क़ जो बहा, हां सच
bahut khubsurat haa sach.
बहुत से शौक पाले है यूं तो मैने भी
गजल पढने का ज्यादा है "हां सच"
सुन्दर गजल पढवाने के लिये आभार
वाह बहुत बेहतरीन ग़ज़ल .........क्या कहने आपके तेवर खूब निकल कर दिख रहे हैं इस ग़ज़ल में
मुझे भी जीतना तो आता है मगर, यूँ हार कर
गु़रूर को तेरे मैं जीतते हूँ देखता, हाँ सच
kya baat kahi hai......
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे घर में आ के मुझसे है मिला, हाँ सच
Is gazal ka behatreen sher....aisee baagi gazalon ke hum diwane hain
शुक्रिया महक जी, मोहिन्दर जी और नासवा जी।
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे घर में आ के मुझसे है मिला, हाँ सच
इस शेर में "मेरे घर" से मेरा मतलब है 'मैं खुद', self. मैं ये मानती हूँ कि भगवान खुद में ही होता है, हमें कहीं जा कर पूजा करने की ज़रूरत नहीं होती। बस इसी खयाल से इस शेर की उत्पत्ति हुई है।
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे घर में आ के मुझसे है मिला, हाँ सच
वाह...मानसी जी...बहुत खूब...
नीरज
बहुत सुंदर ग़ज़ल है - ख़ासकर रदीफ़ में एक सुंदर प्रयास जिसमें एक नयापन और अलग सा अंदाज़ - यह बहुत अच्छा लगा।
दिगम्बर नासवा जी की टिप्पणी से एक बात साफ़ होती है कि यह शे'र आपके भाव को पूरी तरह प्रकट ना कर पाया और आपको स्वयं अपने शे'र का भावार्थ देना पड़ा।
जहां तक मेरा ताल्लुक़ है, मुझे तो ऐसे शे'र पसंद हैं जहां पढ़ कर कुछ सोचना पड़े, उसका भाव समझने के लिए मस्तिष्क की क़वायद भी हो सके। इस लिए तख़य्युल के लिहाज़ से आपका
शे'र ख़ूबसूरत है।
पुराने ज़माने में ऐसे ही अशा'र ख़ूब चलते थे जैसे:
आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना
कुछ आग बच रही थी सो आशिक़ का दिल बना
('सौदा')
यहां आग और दिल में क्या संबंध है, सोचना पड़ता है, शे'र को दो तीन बार पढ़ने का भी मौक़ा मिलता है।
महावीर शर्मा
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे घर में आ के मुझसे है मिला, हाँ सच
....kya baat hae,bahut khub.
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे घर में आ के मुझसे है मिला, हाँ सच
....kya baat hae,bahut khub.
मानसी जी ,
वैसे तो पूरी ग़ज़ल बहुत अच्छी है ..लेकिन मुझे इन पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया......
मैं दुश्मनी निभाउंगा तो दोस्ती ही की तरह
मुझे तू आज़मा के देख तो कभी ज़रा, हाँ सच
हेमंत कुमार
अरे ये नायाब ग़ज़ल जाने कैसे मेरी नजरों से रह गयी थी....
रदीफ़ की खूबसूरती पे तो हम फिदा हो गये...गज़ल तो सोना है ही तिस पर सुहागे का काम किया है श्रद्धेय महावीर जी की अनमोल टिप्पनी ने...
मंदिरों वाला शेर वाकई में सरताज शेर है। मुझे लेकिन ये "मुझे भी जीतना ...’ वाला शेर भी खूब भाया है। लगा कि काश ये शेर मैंने कहा होता...सच्ची।
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