Sunday, April 05, 2009

मेरा न्यायाधीश- भाग ३

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गतांक से आगे-

डेविड के उत्पात के ढंग अनोखे थे। कभी कीचड़ से भरे बूटों से लंबा रास्ता चुन कर कक्षा में पड़े कालीन पर पैर जमाता हुआ धीरे-धीरे वह अपने डेस्क तक पहुँचता। डाँटने पर वह भोलेपन से उत्तर देता, " आपका ही तो नियम है कि नंगे पैरों क्लास में नहीं आना चाहिये क्योंकि कोई पिन चुभ सकता है। आज कक्षा के जूते मैं घर पर ही भूल गया। " कभी कापी में कोई ’x’ देख कर उस ग़लत सवाल को वह झुँझला कर इतनी ज़ोर से मिटाता कि दूसरे पन्ने त्राहि-त्राहि कर उठते और इरेज़र उस पन्ने को पार कर डेस्क की चिकनी सतह तक पहुँच जाता। कभी वह खाने का डिब्बा इस बेपरवाही से शेल्फ़ पर फेंकता कि वह खुल जाता, फ़्लास्क लुढ़क कर दुग्धधारा बरामदे में प्रवाहित करने लगता और सैंडविच उछल कर पास खड़े किसी बच्चे के सिर का आभूषण बन जाता।

अपने डेस्क पर वह एक बाल्टीनुमा डिब्बे में कई दर्जन रंगीन पेंसिलें रखता था। जब भी मैं सारे बच्चों का ध्यान कठिनाई से अपनी ओर खींच कर कोई महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाना शुरु करती, न जाने किस मंत्र से बिंध कर वह डिब्बा डेस्क के कोने तक पहुँच जाता और फिर मानो किसी अनजान वायु के धोखे से वह ज़ोर की आवाज़ के साथ ज़मीन पर गिर पड़ता। दर्जनों पेंसिलें चारों ओर बिखर जातीं। सारे बच्चे उन्हें उठाने को दौड़ते और डेविड बड़े आराम से उन्हें धीरे-धीरे कलर-कोड के हिसाब से वापस डिब्बे में जमाता। जब तक ये काम ख़त्म होता, मेरा रक्तचाप इतना बढ़ जाता कि पढ़ाने का उत्साह ही ख़त्म हो जाता।

डेविड के बुद्धिशाली होने में कोई संदेह नहीं था। हाँ, काम करने में विशेषत: लिखित कार्य में उसकी कोई रुचि नहीं थी। अपने काम की नन्ही सी त्रुटि भी उसे उससे विरत करने के लिये काफ़ी थी। पश्चिमी शिक्षा पद्धति में ऐसे बच्चों को उत्साहित करने के बहुत तरीक़े हैं। उनमें से बहुतों का प्रयोग करके ही डेविड से कुछ काम करवाया जा सका।

डेविड को अनुशासन में रखने के लिये मैंने उसका डेस्क अपनी मेज़ के साथ ही लगा लिया था। उन कुछ महीनों के समय में हममें कितने झगड़े हुये, कितने ही वाद विवाद! उन सब के बारे में लिखने बैठूँ तो शायद एक नये महाभारत की रचना हो जाये। संक्षेप में इतना ही कि धीरे-धीरे डेविड के उत्पात कम होने लगे। मार्च-अप्रैल तक डेविड और मेरे संबंध एक स्नेह के बंधन में बँध चुके थे। यह क्रिया बड़ी धीमी व कष्टप्रद थी। हाँ, जिस गति से डेविड ने मेरे हृदय पर अधिकार जमाना शुरु किया, उसी तरह मेरी मेज़ पर भी। अपनी सीमा का अतिक्रमण करके पहले उसकी रंगीन पेंसिलों की बाल्टी मेरी मेज़ पर आई। वहाँ से उसके गिरने की संभावना कम थी इसलिये मैंने उसे अनदेखा कर दिया। धीरे-धीरे उसकी किताबें, हाकी के कार्ड, व छोटे-मोटे खिलौने भी मेरी मेज़ पर जम गये। अपना डेस्क वह बहुत साफ़-सुथरा रखता था। बस मेरी मेज़ की ही दुर्दशा थी।

डेविड कभी भी दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। यह बात मैं पहले भी कह चुकी हूँ। एक दिन रिसेस के समय दीवार के सहारे खड़ा वह अपना ’ग्रनोला बार’ बड़े चाव से खा रहा था। तभी एक बड़े लड़के बिली ने वह बार छीनना चाहा। डेविड के आपत्ति करने पर उसने उसे ऐसा धक्का दिया कि डेविड का सर दीवार से जा टकराया। डेविड अपने हाथ से आँसू पोंछता उसे बुरा-भला कहता रहा पर बिली पर उसका कोई असर नहीं हुआ। इस घटना की साक्षी मैं थी। अत: दोनों को साथ ले कर मैंने ये बात प्रिंसिपल को बताने का फ़ैसला कर लिया।

दोनों को प्रिंसिपल के आफ़िस के बाहर छोड़ कर मैंने उनको सारी घटना बताई। " डेविड को आपसे हमेशा सज़ा ही मिली है। आज उसका पक्ष ले कर आप बिली को सज़ा दें।" मैंने कहा " डेविड भी तो देखे कि जो व्यवस्था नियम तोड़ने पर दोषी को सज़ा देती है, वही नियम के साथ रहने वाले को न्याय भी दिलाती है, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। " प्रिंसिपल ने मामले की गंभीरता को समझते हुये उन दोनों को अंदर बुलाया।

डेविड की आँखें रोने के कारण लाल थीं, माथे पर गूमड़ निकल आया था। बिली भी कुछ भयभीत सा था। सारी घटना डेविड ने बताई। झूठ बोलने की कोई संभावना न देख कर बिली ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। गवाह के रूप में मैं और वह आधा खाया ग्रनोला बार उसके हाथ में ही मौजूद था।


संभवत: मेरी बात को ध्यान में रखते हुये प्रिंसिपल ने पहले तो बिली की कड़ी ताड़ना की, फिर डेविड के कंधे पर हाथ रख कर कहा, " डेविड, बिली ने तुम्हारे प्रति अन्याय किया है। तुम ही उसकी सज़ा का विचार करो। उसके मां-बाप से शिकायत की जा सकती है, उसे ससपेंड किया जा सकता है, अथवा तुम जितने चाहो उतने ’डिटेन्शन्स’ उसे दिलवा सकते हो। तुम्हारा ग्रनोला बार तो उसे नया ला कर देना ही होगा, क्षमा भी उसे तुमसे माँगनी होगी पर बाक़ी सज़ा तुम ही तय करो।"

उनकी बात सुन कर मुझे झुंझलाहट आई। यह तो नन्हें बच्चे के हाथ में तलवार थमा देना हुआ। ये अधिकारी लोग बच्चों को क्या समझेंगे! मेरे उनसे कहने का यह मतलब तो नहीं था कि डेविड को ऐसा अबाध अधिकार दे दिया जाये।

इधर प्रिंसिपल अपनी सूझ-बूझ पर स्वयं कायल हो रहे थे, उधर मैं क्षुब्ध सी खड़ी थी। बेचारे बिली का मुँह सूख सा गया था। संभवत: उसने अपनी वृद्धावस्था तक अपने को कोने में खड़े रहने की कल्पना कर ली थी। हम तीनों ही डेविड का मुँह ताक रहे थे।

डेविड के चेहरे पर उस समय जो भाव था उसे मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ। इस अप्रत्याशित अधिकार से उसके गांभीर्य में कोई अंतर नहीं आया। कुछ सोचने के बाद उसने गर्दन कुछ टेढ़ी की और बिली को भवें कुंचित कर, सीधी, सतर दृष्टि से देखते हुये शांत, गंभीर स्वर में कहा, " आइ विल अक्सेप्ट जस्ट अन अपोलोजी फ़्राम यू, बिली" । प्रिंसिपल और मैं भौंचक्के से रह गये। बिली ने फ़ुर्ती से डेविड से क्षमा प्रार्थना की व द्रुत गति से बाहर भागा। डेविड भी मंथर गति से उसके पीछे चला गया। केवल प्रिंसिपल और मैं एक दूसरे का मुँह ताकते खड़े रहे।

--अचला दीप्ति कुमार

क्रमश: (अंतिम भाग)

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

डेविड बहुत मजबूत था मानसिक रूप से।

दिगम्बर नासवा said...

अंत का इंतज़ार रहेगा ..........

Manjit Thakur said...

कल पूरा पढेंगें इंतजार है।