पहला भाग पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें-
गतांक से आगे-
अगला साल किस तरह शुरु होगा ये सोचते ही मेरा मन डूबने लगा। यंत्रचालित की तरह उसकी पारिवारिक फ़ाइल हाथ में पकड़े मैं अपने कमरे में आई। धीरे-धीरे, जब उसके पन्ने पलटे, तो पाया कि मन में उभरे आक्रोश को हटा कर सहानुभूति की भावना मेरे अंदर जाग रही है।
डेविड अपनी माता-पिता की दूसरी संतान था। उसके जन्म के कुछ वर्षों बाद ही पिता उसके जीवन से ऐसे लुप्त हुये कि फिर उनका पता नहीं चला। डेविड की मां का मस्तिष्क भी बहुत संतुलित नहीं था। कुछ वर्षों वो एक दूसरे व्यक्ति के साथ रही। डेविड को उससे भी बहुत स्नेह हो गया था। पर एक कार की धोखाधड़ी के सिलसिले में वह और डेविड का बड़ा भाई दोनों पकड़े गये। अब वह व्यक्ति जेल में है और डेविड का भाई ग्रूप होम ( सुधार गृह) में। उनसे डेविड का मिलना नहीं होता है। डेविड की मां जब संतुलित होती है, तो डेविड उसके साथ रहता है वरना उसे विभिन्न फ़ास्टर केयर ( पालक गृहों ) में भेज दिया जाता है। उसके मन में असुरक्षा की भावना घर कर गई है और यही भावना, उसके उद्दंड वयवहार का कारण है।
ये सब तो ठीक, पर इस बच्चे को सितंबर से अपनी कक्षा में रखना मेरे लिये एक चुनौती ही थी। लंबे अनुभव के अलावा, इस स्थिति से सामना करने के लिये, मेरे पास और कोई भी हथियार नहीं था। डेविड को मैंने स्कूल में कई बार देखा था। लंच रूम से निकाले जाने पर दरवाज़े के पास बैठ कर आराम से खाना कहते हुये, जिम कक्षा से निकाले जाने पर दीवार से टिक कर उदासीन भाव से बाहर देखते हुये। पर उस दिन यार्ड ड्यूटी के दौरान उसे मैंने ध्यान से देखा- पहली बार! मुझे तो वो बड़ा भोला-भाला, सुंदर सा बच्चा लगा। गहरी नीली आँखें, सुनहरे बाल, तीखे नक्श, दुबला-पतला छोटा डील-डौल, साफ़-सुथरे कपड़े पहने हुये। बस आँखों में कुछ उदासीनता सी थी व चेहरे पर एक अस्वाभाविक गंभीरता। दूसरे बच्चों के साथ खेलते मैंने उसे नहीं देखा, न ही उन्हें तंग करते हुये।
मई में बारिश के कारण, मैदान में जगह-जगह पानी भर जाता है। उन्हीं जगहों में बैठ कर वह अकेला एक दो खिलौने की कारों से खेलता रहता था। यदि सितंबर में उसे मेरी कक्षा में रहना है तो अभी से उसका मन जीतने का प्रयास करना चाहिये, ये सोच कर एक दिन दो तीन छोटी-छोटी कारें मैंने उसके पास रख कर कहा, " ये मेरे पास बेकार पड़ी थीं, तुम इनसे खेल सकते हो।" डेविड ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। मशीनी ढंग से धन्यवाद दे कर वह अपनी ही कारों से खेलता रहा। मेरी दी हुई कारें उपेक्षित सी एक ओर पड़ी रहीं। मेरे मन पर हल्की सी चोट लगी। पर तभी ध्यान आया, जब एक ऐसे बच्चे के रिजेक्शन या अस्वीकृति से जिसका मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है, मुझे दुख हो रहा है, तो डेविड की मन:स्थिति कैसी होगी जिसके कोमल मन पर कितने ही आघात उसके प्रिय व्यक्तियों ने दिये हैं। स्वाभाविक ही है कि वह किसी के भी स्नेहमय व्यवहार को शंका की दृष्टि से देखता है।
सितंबर में कुछ आशंका के साथ मैंने डेविड का कक्षा में स्वागत किया। बड़े निस्पृह भाव से एक कोने का डेस्क चुन कर वह चुपचाप बैठा इधर-उधर देखता रहा। उसकी दृष्टि की वीतरागता ने मुझे विचलित सा कर दिया। जेल बदले जाने पर कैदियों की दृष्टि में ऐसी ही उदासीनता रहती होगी। एक स्नेह की लहर मन में उमड़ी। लगा उसे समझाऊँ, कहूँ, " बच्चे! तुम्हारी ज़िंदगी तो अभी शुरु ही हो रही है। कितना कुछ तुम्हारे आगे है। अभी से ऐसी हताशा कैसी? "
संभवत: स्नेह की उसी डोर ने मुझे उससे बाँधे रखा वरना अपनी ओर से तो उसने पूरा प्रयास किया कि मैं अपनी कक्षा से उसे निकाल दूँ। देर से आना, चीज़ें तोड़ना-फोड़ना, काम न करना, मुँहफट जवाब देना, उसके नित्य के काम थे। रूलर को तोड़ताड़ कर उसने पेंसिल की आकार का बना दिया था, पेंसिल को कुतर-कुतर कर रबर के आकार, और रबर का काम तो वह उँगलियों से ही चला लेता था। हाँ, इतना ज़रूर था कि वो दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। उसकी लड़ाई मानो वयस्कों से ही थी। किसी भी बच्चे को किसी भी तरह की तकलीफ़ पहुँचने पर डेविड का व्यवहार उसके प्रति बहुत ही प्यार भरा होता था। उसके स्वभाव के इसी पहलू ने मुझे आश्वासन दिया कि यह केस पूरी तरह से हारा नहीं गया है।
क्रमश: (भाग ३ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें)
----अचला दीप्ति कुमार
5 comments:
सुन्दर! आशावादी संस्मरण पढ़वाने का शुक्रिया!
अच्छी कहानी, पूरी होने दी जाए।
बढ़िया संस्मरण..जारी रहो!
सुन्दर लिखा है..........पूरी कहानी का इंतज़ार है
मानोशी जी,
अभी सिर्फ दो भाग ही पढ़ा है ...लेकिन ये सिर्फ एक संस्मरण नहीं लग रहा .एक अच्छी कहानी ..जो बाल मनोविज्ञान की बेहतर समझ रखने वाली अध्यापिका एवं लेखिका द्वारा लिखी गयी है ...आगे की कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी .
हेमंत
Post a Comment