Monday, June 22, 2009

हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ


मृगमरीचिका ये संसार
बीहड़ बन
सुख-दुख का जाल
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ

जीवन-जीवन दौड़ी भागी
कैसी पीड़ा ये मन लागी
फूल-फूल से बगिया-बगिया
इक आशा में इक ठुकराऊँ
रंग-बिरंग जीवन जंजाल
सखि! मैं जीवन अटकी जाऊँ

हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ

आड़े तिरछे बुनकर आधे
कितने इंद्रधनुष मन काते
सुख-दुख दो हाथों में लेकर
माया डगरी चलती जाऊँ
ये नाते रिश्तों के जाल
सखि! मैं डोरी लिपटी जाऊँ

हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥

रोती आँखें जीवन सूना
देखे कब मन जो है दूना
पिछले द्वारे मैल बहुत है
संग बटोर सब चलती जाऊँ
पा कर भी सब मन कंगाल
सखि! किस आस में भटकी जाऊँ

हाय मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥

16 comments:

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

मानसी जी ,
बहुत अच्छी लगी पंक्तियाँ.
शुभकामनाएं .
mumbai tiger

Anonymous said...

आड़े तिरछे बुनकर आधे
कितने इंद्रधनुष मन काते

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. शुभकामनाएं

Udan Tashtari said...

पा कर भी सब मन कंगाल
सखि! किस आस में भटकी जाऊँ

हाय मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥

-बहुत बढ़िया गीत. अच्छे लगे भाव, बधाई मानोषी जी.

श्यामल सुमन said...

फूल-फूल से बगिया-बगिया
इक आशा में इक ठुकराऊँ

मानसी जी सुन्दर भाव की कविता। वाह।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Unknown said...

sundar shabdaavli se susajjit atyant sundar
bhaav aur shilp ka parichayak yah geet seedhe man me utar gaya hai ............ab toh nikaale bhi nahin niklega

badhaai is rachna k iye !

प्रवीण त्रिवेदी said...

अच्छी लगी पंक्तियाँ.
शुभकामनाएं !!

ओम आर्य said...

paakar sakhi mai bhataki jaau ..........kitani sundarta se bhawo ka chitran kiya hai ........kabile tarif hai.........ek geet hai ......jisko gunguna bahut achchha lagega

दिगम्बर नासवा said...

कोमल भावनाओं से सजी आपकी रचना............ प्यार के मधुर भाव संजोये

रंजना said...

आज तक आपकी कोई भी रचना मैंने कमजोर नहीं पाया है.....बहुत ही बेहतरीन लिखती हैं आप....

सदैव की भांति मन को छूती यह सुन्दर रचना मुग्ध कर गयी....

सतत सुन्दर लेखन के लिए शुभकामनायें.

हरकीरत ' हीर' said...

रोती आँखें जीवन सूना
देखे कब मन जो है दूना
पिछले द्वारे मैल बहुत है
संग बटोर सब चलती जाऊँ
पा कर भी सब मन कंगाल
सखि! किस आस में भटकी जाऊँ

मानसी जी , ये रोना धोना क्यों.....? सकारात्मक सोच रखिये भई....!!

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

इस गीत (एक तरह से भजन) को सराहने का सभी का शुक्रिया।

रंजना जी, आपकी टिप्पणी से प्रोत्साहन मिला।

हरकीरत जी, बस इतना ही कहूँगी कि ब्लाग का मंच मेरे लिये तंज़ के आदान-प्रदान का मंच नहीं। जेन्विन कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म का हमेशा स्वागत है। आपके ब्लाग पर मैंने टिप्पणी दी है।

निर्मल सिद्धु - हिन्दी राइटर्स गिल्ड said...

बहुत दिनों बाद एक अच्छी कविता पढ़ी। बहुत पसन्द आई। अच्छी और सुन्दर शब्दों से सुसज्जित ये कविता अथवा भजन मन को छू गया। बधाई हो

satish kundan said...

वाह....बहुत खूबसूरती से आपने मन के भावो को वयक्त किया है...पढ़कर बहुत अच्छा लगा..मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है...

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

आड़े तिरछे बुनकर आधे
कितने इंद्रधनुष मन काते
सुख-दुख दो हाथों में लेकर
माया डगरी चलती जाऊँ
ये नाते रिश्तों के जाल
सखि! मैं डोरी लिपटी जाऊँ
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥

मानोशी जी ,
मुझे लगता है आज के दौर में जब हिंदी कविता में ज्यादातर आतंकवाद,महानगरीय जीवन के विभिन्न संत्रास ,कुछ प्राकृतिक सौन्दर्य या ऐसे ही अन्य विषयों को उठाया जा रहा है ....आपका ये पद्य /भजन निश्चित रूप से हिंदी कविता को एक नया आयाम देगा .साथ में मैं यह भी कहना चाहूँगा की आप यदि संभव हो तो इस तरह की और भी रचनाएँ करें .आपका यह भजन हमें कबीर ,तुलसी ,मीरा के युग की याद दिला रहा है कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तर पर.शुभकामनाएं .
हेमंत कुमार

Urmi said...

बहुत ख़ूबसूरत कविता लिखा है आपने! मुझे बेहद पसंद आया!

गौतम राजऋषि said...

ये नया रूप भाया मानोशी...
और टिप्पणी भी !