Sunday, June 28, 2009

पगली कूक-कूक चिल्लाये


भारत में जहाँ मानसून के लिये तरसा जा रहा है, बरसात कभी भी आ सकती है, वहीं यहाँ अभी-अभी गर्मी शुरु हुई है। ऐसे में भी, मगर कविता लिखते समय भारत की गर्मी की ही छवि सामने होती है।



गर्मी के दिन फिर से आये।

सुबह सलोनी, दिन चढ़ते ही
बन चंडी आंखें दिखलाती ,
पीपल की छाया भी सड़कों
पर अपनी रहमत जतलाती,
सन्नाटे की भाँग चढ़ा कर
पड़ी रही दोपहर नशे में,
पागल से रूखे पत्ते ज्यों
पागल गलियाँ चक्कर खाये ।
गर्मी के दिन फिर से आये।

नंगे बदन बर्फ़ के गोलों
में सनते बच्चे, कच्छे में,
कोने खड़ा खोमचे वाला
मटका लिपटाता गमछे में,
मल कर गर्मी सारे तन पर
लू को लिपटा कर अंगछे में
दो आने गिनता मिट्टी पर
फिर पड़ कर थोड़ा सुस्ताये।
गर्मी के दिन फिर से आये।

तेज़ हवा, रेतीली आँधी
साँय-साँय सा अंदर बाहर,
खड़े हुए हैं आँखें मूंदे
महल घरोंदे मुँह लटकाकर
और उधर लड़ घर वालों से
खेल रही जो डाल-डाल पर
खट्टे अंबुआ चख गलती से
पगली कूक-कूक चिल्लाये।
गर्मी के दिन फिर से आये ।

ठेठ दुपहरी में ज्यों काली
स्याही छितर गई ऊपर से,
श्वेत रूई के फ़ाहों जैसे
धब्बे बरस पड़े ओलों के
लगी बरसने खूब गरज कर
बड़ी-बड़ी बूंदे, सहसा ही
जलता दिन जलते अंगारे
उमड़-घुमड़ रोने लग जाये।
गर्मी के दिन फिर से आये।

17 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

जान सी जाएँ, मन घबराएँ,
गर्मी के दिन फिर से आएँ,
कविता ने क्या भाव जताएँ
गर्मी के दिन फिर से आएँ,

M VERMA said...

नये प्रतीको से अनुरक्त बहुत अच्छी रचना

M VERMA said...

नये प्रतीको से अनुरक्त बहुत अच्छी रचना

ओम आर्य said...

pagali kuk kuk chilaaye .........bahut hi sundar abhwyakati...............ek uchkoti ki rachana

cartoonist anurag said...

vakai main aapki rachna kabile tareef hai....aapke blog par pahli bar aaya hun bahut achha laga aapka blog....
mansoon par maine bhi ek cartoon banaya hai....jaroor dekhiyega...

Unknown said...

waah
waah

bahut khoob
umda rachna................
badhaai !

दिगम्बर नासवा said...

vaah आपने तो garmi में और garmi की याद karaa दी............ पर लाजवाब लिखा है, sundar rachna

अर्चना तिवारी said...

मानसी जी आपकी गर्मी सच में झुलसा देने वाली है
हार्दिक शुभकामना...

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

ठेठ दुपहरी में ज्यों काली
स्याही छितर गई ऊपर से
श्वेत रूई के फ़ाहों जैसे
धब्बे बरस पड़े ओलों के
लगी बरसने खूब गरज कर
बड़ी-बड़ी बूंदे, सहसा ही
जलता दिन जलते अंगारे
उमड़ घुमड़ रोने लग जाये
गर्मी के दिन फिर से आये

मानोशी जी ,
लगता है आपकी पंक्तियों से यहाँ की गरमी डर गयी
तभी तो आज सुबह यहाँ जोरदार बारिश हुयी है वैसे
आपका ये गीत भी बहुत अच्छा लगा .
हेमंत कुमार

Mumukshh Ki Rachanain said...

शानदार कविता.
गर्मी का काव्यमय वर्णन बेहद पसंद आया.
बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त

पूनम श्रीवास्तव said...

गर्मी का बहुत अच्छे शब्दों में प्रस्तुतीकरण ---सुन्दर रचना ।
पूनम

Urmi said...

बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!

अनिल कान्त said...

बहुत ख़ूबसूरत रचना

chhandik said...

Your blog is very nice. Though I am not that good in Hindi but I read your poem. Very well written.
You are welcome in my blog.

गौतम राजऋषि said...

स्वागत के लिये मान्सून खड़ा है...

औरकुट में जाना कि आप इधर आ रही हो?

Sajal Ehsaas said...

kaafi achhi achhi rachnaayein mili is garmee ke chakkar me blogging jagat me...aapki koshish bhi unme se ek behtareen rachna hai

Puja Upadhyay said...

behad sajeev rachna hai, garmi saaamne khadi dikhayi deti hai apne poore taav me.
pahli baar aapke blog par aayi...behad khoobsoorat lagi aapki kavitayein.