Tuesday, September 29, 2009

ज़िंदगी गुम हो रही है

ज़िंदगी गुम हो रही है
आधुनिकता ढो रही है

खिंच रहा है बेलगाम मन
चमचमाती खनक सुन कर
छिछले होते जा रहे
अनूभूति के गहरे समंदर
बन गया है आदमी अब
एक मन रहित सा पुर्ज़ा
भावनायें प्रेम विरह सब
अट्ठहास सी कर रही हैं

हृदय स्वार्थी हो गया है
एकनिष्ठता मूर्खता है
मूल्य टूट कर बिलख रहे हैं
मां की पूजा असभ्यता है
बाप को सब से मिलाना
हो गया है शर्मनाक सा
नीति की बातें पुरानी
जैसे लंगड़ा सी रही हैं

खिलखिलाते बच्चों के अब
हाथ में कटार होती
गोलियाँ अब बात-बात पे
बात के बदले में चलती
अटका है मन ठाठ-बाट के
चक्र्व्युह में फ़ँसा हुआ सा
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है

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