Tuesday, September 29, 2009

बड़ी हैं सीमायें मगर...

ज़िंदगी गुम हो रही है
आधुनिकता ढो रही हैं

खिंच रहा है बेलगाम मन
चमचमाती खनक सुन कर
छिछले होते जा रहे
अनूभूति के गहरे समंदर
बन गया है आदमी अब
एक मन रहित सा पुर्ज़ा
भावनायें,प्रेम, विरह सब अट्ठहास सी कर रही हैं

हृदय स्वार्थी हो गया है
एकनिष्ठता मूर्खता है
मूल्य टूट कर बिलख रहे हैं
मां की पूजा असभ्यता है
बाप को सब से मिलाना
हो गया है शर्मनाक सा
नीति की बातें पुरानी जैसे लंगड़ा सी रही हैं

खिलखिलाते बच्चों के अब
हाथ में कटार होती
गोलियाँ अब बात-बात पे
बात के बदले में चलती
अटका है मन ठाठ-बाट के
चक्रव्युह में फ़ँसा हुआ सा
ज़िंदगी बस होड़ में खु़द को पछाड़े जा रही है

कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है
आस्था मर्यादा की परिभाषायें अब बदल रही हैं

13 comments:

Udan Tashtari said...

कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है
आस्था मर्यादा की परिभाषायें अब बदल रही हैं

-क्या खूब कहा है, वाह!!

अनूप शुक्ल said...

बड़ी भयंकर कविता है!

वाणी गीत said...

कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा

नवीन आशाओं के बीच पुराने मुखौटे उतर जाएँ ...
बहुत शुभकामनायें ..!!

विनोद कुमार पांडेय said...

सब कुछ बदल रहा है यह बात बिल्कुल सही है पर इन सब के लिए हम और हमारे अपने भी ज़िम्मेदार है जो और भी तेज़ी से बदल रहे है.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति..सुंदर भाव और संदेश से भरी कविता.. धन्यवाद!!!

Apanatva said...

this is my first visit to your blog. Its a great postek ek pankti me sagar kee see gahrai hai .
badhai itanee pyaree rachana ko janm dene kee .

ओम आर्य said...

बिल्कुल सही कहा आस्था और मार्यादाओ की परिभाषा बदल रही है ..........एक यथार्थ कविता........

Science Bloggers Association said...

बदलते समय के साथ हर किसी को बदलना पडता है। परिवर्तन को रेखांकित करती सुंदर कविता है,बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

दिगम्बर नासवा said...

बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है.......

sach kaha hai .. dil aur sikudte jaa rahe hain ...... yathaart ke kareeb se likhi kavita .....

संजीव गौतम said...

बेहद अच्छे तरीके से आपने अभिव्यक्ति दी है.
कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
वाह!!

पूनम श्रीवास्तव said...

मानसी जी,
बहुत ही सामयिक और सार्थक कविता लिखी है आपने ----आज वाकयी आदमी की जिन्दगी ,सोच,सभी कुछ बदल गया है।
पूनम

Arshia Ali said...

सही कहा आपने, वक्त के साथ हर चीज बदल जाती है।
Think Scientific Act Scientific

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है
आस्था मर्यादा की परिभाषायें अब बदल रही हैं

अच्छी और सा्मयिक कविता--
हेमन्त कुमार

vijay kumar sappatti said...

maanji ji

namaskar
bahut acchi kavita

aaj ke samay ki sachhai kahti hui . shabdo ka bahut accha prayog hua hai .. meri badhai sweekar kare..

regards
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com