Thursday, March 11, 2010
मिताली (मुखर्जी) सिंह- दो गज़लें
उन दिनों ख़ूब ग़ज़लें सुनती थी, ख़ाली वक़्त में। जगजीत सिंह की ग़ज़लें सबसे प्रिय थीं। मेरी उम्र रही होगी सोलह-सत्रह साल की। इसी तरह मिताली मुखर्जी (मिताली सिंह) की गायी एक दो गज़लों ने दिल में ऐसी जगह बनाई थी, कि अब भी उन ग़ज़लों को सुन कर वे दिन याद आ जाते हैं। उनकी आवाज़ की दीवानी थी मैं। आज उनकी दो गज़लें सुन रही थी। वे दिन भी कितने हसीन थे। :-)
अहमद फ़राज़ की ये गज़ल उनकी आवाज़ में-
कुछ प्यार जहां में ऐसे हैं
अश्कों में जो पलते देखे हैं
दुश्मन तो न बदले अपने कभी
हमदम ही बदलते देखे हैं
कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे
हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे
ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन
तेरे भेद न खोलेंगे
नींद तो क्या आयेगी "फ़राज़"
मौत आई तो सो लेंगे
मिताली जी की ही गाई हुई एक और ग़ज़ल। शायरी तो ख़ास नहीं पर इस ग़ज़ल की कम्पोज़िशन में जादू था। जाने कितने हज़ार बार सुना होगा उसे तब-
मुझे माफ़ कर मेरे हमसफ़र तुझे चाहना मेरी भूल थी
किसी राह पर यूँ ही इक नज़र तुझे देखना मेरी भूल थी
तुझे देख के किसी हाल में, वो उलझना ज़ुल्फ़ों के जाल में
सुबहो-शाम तेरे ख़याल में, मेरा डूबना मेरी भूल थी
तुझे ढूँढती है मेरी नज़र न है रास्ता न कोई डगर
वो गली गली वो नगर नगर तुझे ढूँढना मेरी भूल थी
मेरे ख़्वाब भी हैं अजीब से, तुझे देख लूँ मैं क़रीब से
मुझे तू मिला है नसीब से, यही सोचना मेरी भूल थी।
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13 comments:
Ek sher aap ke do behtreen gazlo ke liye-
Umer jalvo mai basar ho, ye jaroori to nahi.
Her shab-e-gam ki sahar ho,
ye Jaroori to nahi.
Sheikh kartaa to hai masjid mai khuda sajdey.
Uskay sajdo mai asar ho,
Ye jarooro to nahi.
मिताली जी आवाज़ सुन कर पुराने दिन याद आ गए जब सिर्फ और सिर्फ ग़ज़लें ही सुना करते थे...बहुत बहुत शुक्रिया इन्हें यहाँ सुनवाने के लिए...
नीरज
मिताली सिंह की गायी गज़लें बेहद मनभावन हैं ..उम्दा प्रस्तुति...
एक समय तो हम भी ग़ज़लें ही सुना करते थे, मगर पिछले दिनों बड़े शौक से ग़ज़लों की डीवीडी लगाई तो एकाध ग़ज़ल के बाद इजेक्ट बटन पर उंगली स्वयंमेव दब गई.
लगता है -
उम्र का तकाजा है या मेरी समझ का सबब,
अब तेरी ग़ज़लों में वो मायने नहीं मिलते
ओह वो दौर याद आ गया जब रेडियो का नया नया शौक़ था, रेडियो का...यानी रेडियो पर बोलने का । कॉलेज का दौर था । एकदम फर्स्ट ईयर । छोटा शहर । हीरो हुआ करते थे कॉलेज के । कभी किसी की 'उन' के लिए, तो कभी किसी और की 'उन' के लिए फ़रमाइशें होतीं...यार आज के प्रोग्राम में बजा देना प्लीज़.....ये दोनों ग़ज़लें तब हमारे 'युववाणी' प्रोग्राम में खूब बजीं । और भी कुछ गजलें याद आईं---
1. इक शब के मुसाफिर हैं हम तो--महेश चंदर
2. बरसात की भीगी रातों में--तलत अजीज
3. डस ना जाएं जुल्फें कालियां--अहमद हुसैन मुहम्मद हुसैन वगैरह ।
रचनाएँ सुन्दर हैं!
mitali ko to yaad kiya hi .....purane din bhi khoob yaad aaye...! mitali ji awaz aur jab we ROOP ke saath gati hain to kya shama bandhti hain....AAMEEN
kabhi munni begum ko bhi sune to aseem aanand ayega.....
'मुझे माफ़ कर मेरे हमसफ़र तुझे चाहना मेरी भूल थी
किसी राह पर यूँ ही इक नज़र तुझे देखना मेरी भूल थी'
बहुत ही बढ़िया चयन ..
मिताली jee की gayi in gazalon ko sunna achcha laga .
.... प्रभावशाली चयन/प्रस्तुति !!!!
बहुत अच्छा लगा ।
कुछ प्यार जहां में ऐसे हैं
अश्कों में जो पलते देखे हैं
दुश्मन तो न बदले अपने कभी
हमदम ही बदलते देखे हैं
अहमद फ़राज़ साहब ने इन पंक्तियों में जैसे जादू उतर दिया हो !! उस पे मिताली जी की दिलकश आवाज़...!
वाकई वो दिन बेहद हसीं थे....
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
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