लौट चल मन
लौट चल मन,
द्विधा छोड़ सब
लौट चल अब |
द्विधा छोड़ सब
लौट चल अब |
सीमायें तज,
भटक-भटक कर
थका चूर है,
घर सुदूर है,
श्रांत मन, चल शांत हो
अब लौट चल...
मधुरामृत की लालसा में,
चाह कर विष किया पान क्यों?
प्रीत भँवर में उलझ कर के
थका चूर है,
घर सुदूर है,
श्रांत मन, चल शांत हो
अब लौट चल...
मधुरामृत की लालसा में,
चाह कर विष किया पान क्यों?
प्रीत भँवर में उलझ कर के
मिथ्यानंद से किया स्नान क्यों?
ग्लानिसिक्त यह रुदन छोड़ कर
अब झूठे सब बंध तोड़ कर
अश्रु ले कर, अंजुरि में भर
लौट चल मन...
विहगवृंद संग क्षितिज पार तू
सुवर्ण रेखा स्पर्श करने
ग्लानिसिक्त यह रुदन छोड़ कर
अब झूठे सब बंध तोड़ कर
अश्रु ले कर, अंजुरि में भर
लौट चल मन...
विहगवृंद संग क्षितिज पार तू
सुवर्ण रेखा स्पर्श करने
बंधु घुलमिल जोड़ श्वेत पर
चला कहाँ मन किसे हरने?
स्वप्न बाँध अब किस झोली में
नश्वर तारों की टोली में
चला कहाँ मन किसे हरने?
स्वप्न बाँध अब किस झोली में
नश्वर तारों की टोली में
वेष आडंबर
आलिंगन कर
क्या मिलता सब?
लौट चल अब...
19 comments:
कभी-कभी मेरा भी मन थक जाता है , उससे लौटने को कहती हूँ अक्सर...
कभी-कभी मेरा भी मन थक जाता है , उससे लौटने को कहती हूँ अक्सर...
कोमल भावों से सजी ..
..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
आप बहुत अच्छा लिखती हैं...वाकई.... आशा हैं आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा....!!
रंगों का त्यौहार बहुत मुबारक हो आपको और आपके परिवार को|
कई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
एकांत कभी भाने लगता है।
MANN KI BAATEN MANN HI JANE....
MANN KI BAATEN MANN HI JANE....
MANN KI BAATEN MANN HI JANE....
kisi ne kaha hai-
Mann kapti man laalchi, man chanchal man chor.
Mann ke mat chaliye nahi, palak palak man aur.
मानोशी जी, आपके इधर के तीनों गीत मैंने पढ़े---तीनों में ही एक नई ताजगी और शब्द संयोजन दिखाई पड़ा।मुझे लगता है कि आज के नई कविता अकविता के दौर में(यद्यपि मैं भी नई या अकविता ही लिखता हूं) आपके ये गीत हिन्दी साहित्य को समृद्ध करेंगे।--------- -------------------------------एक अंचभित चिड़िया का,
नन्हा बच्चा ले कर पंखड़ाई,
कहता मम्मी आज सवेरे
से ही देखो बदली छाई।----------------------यहां पंखड़ाई शब्द बहुत अच्छा लगा।
behad komalta se likha hai...bahut achchi lagi.
वैराग्य - सुन्दर स्वाभाविक, पर अस्थायी!
मानसी जी,
बहुत सधा हुआ लेखन...... आपकी कविता से बहुत से नए शब्द मिले, नए शब्दों में रची बसी कविता.......!!!!!
मधुरामृत की लालसा में,
चाह कर विष किया पान क्यों?
प्रीत भँवर में उलझ कर के
मिथ्यानंद से किया स्नान क्यों?
ग्लानिसिक्त यह रुदन छोड़ कर
अब झूठे सब बंध तोड़ कर
अश्रु ले कर, अंजुरि में भर
लौट चल मन...
कविता का ये अंश बहुत प्रभावशाली बन पड़ा है.
ativ sundar....me bhi ek blog likhata hu....aap visit karengi to shayad kuch salika aa jayega....it is.....www.yogeshveshnawa-shubhamkar.blogspot.com/
mansi ji
bahut hi sundar shbdo ke samanjasy ke saath bhavo ka sundar ahsaas karaati bahut behtreen prastuti
baht bahut badhai
poonam
श्रांत मन, चल शांत हो
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मधुरामृत की लालसा में,
चाह कर विष किया पान क्यों?
प्रीत भँवर में उलझ कर के
मिथ्यानंद से किया स्नान क्यों?
ग्लानिसिक्त यह रुदन छोड़ कर
अब झूठे सब बंध तोड़ कर
अश्रु ले कर, अंजुरि में भर
लौट चल मन...
बहुत सुन्दर .... अभिव्यक्ति तो कमाल की है....झूठे बंधनों से काश आदमी निकल पाता. बहरहाल इतनी प्यारी कविता हम सब तक पहुँचाने का शुक्रिया.
bahut hi sundar sabdo ko sanyojit kiya hai apne....
aaj se hi apko follow kar raha hun..
jai hindjai bharat
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ और आपकी कविताओ को पढकर बहुत अच्छा लगा , जीवन में आशा का संचार करने वाली कविताएं . सच में बहुत खुशी हुई पढकर आपको . आपका धन्यवाद.
बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
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