सुबह का सपना था
एक तारा टूट कर बिखरा था
और फिर सूरज की रोशनी में धूमिल...
दूर दूर...बहुत दूर ...
हर शाम एक तारा टूटता है
फिर रात भर बिखरता है
कुछ बुने-अनबुने पलों से बना
एक पूरा समय खुल जाता है
एक अधूरी कहानी का आखिरी पन्ना
फड़फड़ाता है, पूरा होने को....
पल-पल गिनती है ज़िंदगी,
दर्द के कलम से
एक लम्हा लिखती है
उधेड़ती है उसे फिर
और
हँसती है, खिलखिलाती है,
एक टीस उगली में पिरो कर
एक और पल बिनती है
आसपास देख कर
उधेड़ती है उसे और मुस्कराती है....
अब तो शाम भी ढलने आई,
रात भी कटने वाली है....
टूटा तारा भी खो चुका है....
एक जीवन पूरा होता है,
रेत पर कोई निशान नहीं
कहानी पूरी होती है
बिना किसी कथानक के
खाली, कोरे पन्ने शांति से
बंद हो जाते हैं किताब की तह में...
1 comment:
कभी एक टूटा तारा सा,
एक सपना प्यारा सा...
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