Saturday, January 21, 2012

प्रिय न जाओ,



स्वार्थ मेरा रोकता है, प्रेम कहता प्रिय न जाओ,
चाहती हूँ कह सकूँ पर कहूँ कैसे, प्रिय न जाओ...

सिर्फ़ मेरे कब हुये तुम, मन तुम्हें कब बाँध पाया,
विरह-पीड़ा हदय की पाषाण मन कब जान पाया,
स्वयं को मैं रोक भी लूँ अश्रु थमते ही नहीं हैं
शूल जिसको बींधता है वही उसको जान पाया,
बस तुम्हें कर्तव्य प्रिय, मैं कुछ नहीं? हे प्रिय न जाओ...

जगत के जो नियम हैं वह मानना है, मानती हूँ,
राह आगे की कठिन है सत्य यह भी जानती हूँ,
प्रेम पर विश्वास है पर धैर्य मेरा छूटता है,
तुम भले योगी मगर मै संग-सुख अनुमानती हूं,
है तुम्हीं से जगत तुम संसार मेरे, प्रिय न जाओ...

प्रेम तो अनुभूति है अभिव्यक्ति में है छल समाया,
प्रेम होता आत्मा से, दो दिवस की मर्त्य काया,
दूर होने से भला क्या प्रेम भी घटता कहीं है?
यह सभी मैं जानती हूँ पर कहाँ मन मान पाया,
एक ही जीवन मिला है संग तुम्हारे, प्रिय न जाओ...

चाहती हूँ कह सकूँ पर कहूँ कैसे प्रिय न जाओ।

10 comments:

संजय भास्‍कर said...

अत्यंत भावपूर्ण और श्रेष्ठ रचना !

निर्मला कपिला said...

मन के भावों को बहुत शिद्दत से शब्दों मे बान्धा है बधाई।

दिगम्बर नासवा said...

जगत के जो नियम हैं वह मानना है, मानती हूँ,
राह आगे की कठिन है सत्य यह भी जानती हूँ,
प्रेम पर विश्वास है पर धैर्य मेरा छूटता है,
तुम भले योगी मगर मै संग-सुख अनुमानती हूं,
है तुम्हीं से जगत तुम संसार मेरे, प्रिय न जाओ...

वाह ... प्रेम और विरह के रंग में रंगी लाजवाब रचना ... आनंद आ गया ...

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रेम के गहरेपन को शब्दों में सजाती कविता..

अनामिका की सदायें ...... said...

gehri prem pagi rachna.

abcd said...

अनुमानती==??

abcd said...

is prem nivedan ko sunkar ...shri krishn chale jaye to bhale hi chale jaye...lekin insaan ke bas me to jaana nahi hai !!

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

सभी को धन्यवाद कि यह रचना आप लोगों ने पसंद की।

@ abcd- उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद। अनुमानना - समझना- पद्य में ही प्रय्क्त होता है अक्सर। इस शब्द का क्रेडिट मैं नहीं लूँगी, यह शब्द मुझे सुझाया गया।

Smart Indian said...

सुन्दर!

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

.


बहुत भावपूर्ण सुंदर लिखा है आपने ...
बधाई !