ज़िंदगी के खाते में
दो और दो का हिसाब,
कभी दस तो कभी शून्य..
हज़ार पलों का लंबा हिसाब...।
एक लंबी सी किताब...।
चंद उम्मीदें
कुछ टंगे सपने
दो आंसू
एक बंद मुस्कान
और उलझा सा अंत लिये
ख़त्म होने आती है।
और फिर पढ़े हुये पुराने पन्ने
बेरुख़ी के साथ
उड़ते हैं...
उन्हें फिर से पढने की कोशिश,
हर पन्ने को गिनने की कोशिश में
मुड़ जाते हैं सफ़्हे,
फट जाता है इधर-उधर
ठीक से नहीं पढ़ा जाता कुछ भी,
और रह जाता है एक मशहूर उपन्यास
दुनिया की दुकान की ताक पर
भूली कहानी बन जाने के लिये
एक दिन....।
3 comments:
सार्थक अभिव्यक्ति
लाजवाब रचना
बहुत ही प्रभावशाली और सशक्त कविता--मनोशी जी---काव्य संग्रह के लिये अग्रिम बधाई।
हेमन्त
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