Sunday, June 16, 2013

ज़िंदगी की किताब

ज़िंदगी के खाते में
दो और दो का हिसाब,
कभी दस तो कभी शून्य..
हज़ार पलों का लंबा हिसाब...।

एक लंबी सी किताब...।

चंद उम्मीदें
कुछ टंगे सपने
दो आंसू
एक बंद मुस्कान
और उलझा सा अंत लिये
ख़त्म होने आती है।

और फिर पढ़े हुये पुराने पन्ने
बेरुख़ी के साथ
उड़ते हैं...
उन्हें फिर से पढने की कोशिश,
हर पन्ने को गिनने की कोशिश में
मुड़ जाते हैं सफ़्हे,
फट जाता है इधर-उधर
ठीक से नहीं पढ़ा जाता कुछ भी,
और रह जाता है एक मशहूर उपन्यास
दुनिया की दुकान की ताक पर
भूली कहानी बन जाने के लिये
एक दिन....।

3 comments:

शारदा अरोरा said...

सार्थक अभिव्यक्ति

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब रचना

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

बहुत ही प्रभावशाली और सशक्त कविता--मनोशी जी---काव्य संग्रह के लिये अग्रिम बधाई।
हेमन्त