पूरी रात ऐसे ही कट गई थी...
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वो कैसी शुरुआत थी...अब कोई अंत नहीं शायद इसका...और अंत की अब प्रतीक्षा भी नहीं...
तुम्हें मैं एक छोटा सा नाम दे दूँ? बस मेरे लिये। पगली कैसा रहेगा? बातों के ताने-बाने में कभी चुप्पी तो कभी खिलखिलाहट उलझ कर रह जाते। मन रेशमी जाल में फँसता जाता...सादे मन से शुरु हो कर, छुप कर सपनों तक में आने का जाल। पहले तो त्राहि-त्राहि करता था, छटपटा कर बंधे कबूतर जैसा...रात गुज़र जाती तो लगता, ओह! भोर हुई, नई सुबह हुई। कल की रात अब नहीं आयेगी फिर। मगर रात आती और किसी तिलिस्मी जादू सा मन भागता फिर उस भूल-भुलैया की ओर। रात के सन्नाटे में छनती रोशनी के बीच गुमसुम छ्त के नीचे तिलिस्मी चारदीवारी में गूँजता उनका मौन तो कभी गूँजती जलतरंग की ध्वनि। इस जलतरंग के बीच ही कितने सपने पलते, कितने अहसास जागते और कितने ही पल इस छोर से उस छोर को छू-छू कर लौट आते। और फिर हर पल को महसूस कर पगली खुश हो नाचती। और फिर एक बोझ ले कर सोने जाती। ओह! कल की रात आज से अलग होगी। हाँ, हाँ...
भादो का महीना। घनी बारिश के बाद की उमस थी। उमस के सिरहाने चलती अचानक ही सुंदर ठंडी हवा का झोंका सारी गर्मी खतम कर देता। उमस में इस हवा के झोंके का अहसास बड़ा शीतल लगता। कहीं लगी आग बुझ जाती अचानक। एक नये तरह का मिलन था। मगर एक महक साथ न छोड़ती पगली का। उसका साथ तो नियति ने बनाया था। कितनी ही खुश्बुयें थीं जो अब उसे रास न आतीं थीं। उनमें शामिल थी उस मेहंदी की सूखी पुरानी महक जो अब सड़ी बू लगती। उमस में जो ताज़गी लगती थी वो मेहंदी की खुश्बू में नहीं। उतरी मेहंदी पर कई बार रंग लगाने की कोशिश भी की थी पगली ने। जब खुद का मन जवाब दे जाता तो वो अपने बगीचे से दो छोटे-छोटे फूल चुरा लाती। उसके ही बाग़ के फूल । अपने हाथों में लेकर फिर से उन फूलों के रंग से रंग मिला, उन्हें मसल कर महीन नक्काशी करने की कोशिश करती, उस फीके रंग को गाढ़ा करने की कोशिश। और कई बार इधर-उधर से उधार ले कर, लाल, कत्थई... मगर हर बार उमस में वह रंग बह जाता। अब तो बस यही जीवन था पगली का, ज़िंदगी का रस कभी खट्टा, कभी मीठा, कभी कसैला और कभी... असहनीय...
वो शाम नहीं भूलती थी उसे। उस शाम को आसमां के साथ-साथ पगली का आँगन भी लाल हो गया था, गाढ़े खून से। उस गाढ़े खून में उसे एक पूरे जीवन का खू़न होते दिखा था। कट-कट कर हर अंग गिर गया था जैसे। मगर फिर धीरे-धीरे सब से छुपा कर एक-एक अंग बटोरा था उसने। जलन को सह कर ठंडी आह भरी थी। सूजी आंखों मॆं फिर काजल लगाया था और फिर एक बार तिलिस्मी जादू में रमने लगा था मन। अब चोट दिखाई नहीं देती थी...फिर से उमस के पसीने की गंध मन को भाने लगी थी...
खु़द से ही जैसे पहचान छूट रही थी। भोर से पहले ही आँखें खुल गई थीं आज। सारी रात नींद ने आँखमिचौली खेली थी। ’सजनवा तोहे काहे मन पुकारे..." राग तोड़ी के करुण सुर पूरी ज़िंदगी को तार-तार कर रहे थे। बिस्तर पर सलवटें कराह रहीं थीं। एक पाँव का नूपुर झाँक रहा था चादर से बाहर, सबसे जैसे आँख बचा कर... । अभी-अभी कुछ पुराने सपनों ने जम्हाई ली थी। तिलिस्मी जादू अपनी चमकीली दुनिया के सपने दिखा कर बुला रहा था और फिर किसी अनजानी मंज़िल की तलाश में, किसी से हश्र में मिलने की चाह लिये एक लाश डोलती सी चल रही थी..किसी पास के श्मशान में धू-धू जलने के लिये...
बस पगली को ये पता नहीं था कि कोई दूर उसे बुलाने वाला उस आग से जी सेंक रहा है...मन ही मन मुस्काते हुये...
--मानोशी
--मानोशी
13 comments:
सपनों को जगाओ भाई। कहो यह जम्हुआई लेने का वक्त नहीं है।
बहुत बढिया!!
सारी रात नींद ने आँखमिचौली खेली थी। ’सजनवा तोहे काहे मन पुकारे..." राग तोड़ी के करुण सुर पूरी ज़िंदगी को तार-तार कर रहे थे। बिस्तर पर सलवटें कराह रहीं थीं। एक पाँव का नूपुर झाँक रहा था चादर से बाहर, सबसे जैसे आँख बचा कर... अभी-अभी कुछ सपनों ने जम्हाई ली थी।
मनोशी जी ,
कहानी छोटी होने के बावजूद एक अलग इम्पैक्ट डालती है.इसमें पाठक को एक कहानी के साथ ही एक शब्द चित्र का भी अनुभव होगा .खास कर ऊपर लिखी पंक्तियाँ काफी सुन्दर बनी हैं.एक विशेष मनःस्थिति को रेखांकित करने वाली कहानी ....
हेमंत कुमार
बस पगली को ये पता नहीं होता कि कोई दूर उसी आग से जी सेंक रहा है...मन ही मन मुस्काते हुये...
--ओह्ह!! क्या बात है!
aapki lekhni kamal ki hai ...aap bahut achchha likhti hain
इस अनूठे ताने-बाने में उलझ कर रह गया हूँ..
अंदर तक उतरती कहानी और कहने का अंदाज़
"किसी से हश्र में मिलने की चाह लिये एक लाश डोलती सी चल रही थी..किसी पास के श्मशान में धू-धू जलने के लिये..."
Very nice.
~Jayant
आह! क्या खूबसूरत ताना बाना बुना है...शब्दचित्र जी उठे हैं अपनी खुशबू और रंग लिए.
bahut badhiya samagam...dhnywad kabhi samay mile to mere blog http://pankajkrsah.blogspot.com pe padharen swagat hai
बस पगली को ये पता नहीं होता कि कोई दूर उसी आग से जी सेंक रहा है...मन ही मन मुस्काते हुये...
आह!!!!
बस पगली को ये पता नहीं होता कि कोई दूर उसी आग से जी सेंक रहा है...मन ही मन मुस्काते हुये...
आह!!!!
शब्दों का खूबसूरत जाल, जिसमें मन उलझ कर जाता है.
बहुत भावपूर्ण चित्रण किया है !
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