सोचती हूँ...
कैसा होगा अंत समय वह
कैसी होगी शाम घनेरी,
सोचती हूँ....
होगा क्या संघर्ष मृत्यु से?
पथरीली होगी पगडंडी?
सूर्य डूब रहा होगा जब
बिखर रही होगी जब मंडी,
स्मृतियों को आंचल में बांधे
जाने की जब बारी मेरी,
कैसी होगी शाम घनेरी...
सोचती हूँ...
राह मिले हैं पथिक बहुत पर
कुछ ही दिन के,
हाथ मिलाने
सब के अपने नीड़ बने हैं
सबकी अपनी हैं
पहचानें,
कौन हुआ है कब चिर जीवन?
थामा किसने कब है किसको?
अपनी तो परछाईं भी ना
है, जो होगी साथ निभाने,
नहीं रात्रि से भय है लेकिन
आँख मूँदने की बेला में
सोचूँ क्या मेरा प्रिय होगा ?
या अनजाना? संग सिरहाने
शीश नवा स्वीकार सकूँ मैं,
जाने की बजती जब भेरी
कैसी होगी शाम घनेरी
सोचती हूँ...
--Manoshi
7 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (08-11-2014) को "आम की खेती बबूल से" (चर्चा मंच-1791) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना...बधाई
Koi bhi nahi jaanta ki ant samay jab aayega kaise haal me jaayega .... Ek soch hai ek sawaal hai ... Bahut hi sunder prastuti .. Mangalkamnaayein !!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
चिन्ता मत कीजिए ,जितना लालित्य-कलामय जीवन है ,संध्या भी उसी के अनुरूप शीतल,शान्त ,महाराग की लय में अवतरित होगी!
bahut achcha geet hai kaise hogi shaam ghaneri
खूबसूरत रचना।
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