Thursday, February 16, 2006

ज़रा सा फ़र्क

अपने करीयर के बारे में कभी बहुत ध्यान से सोचा नहीं था, सब कुछ जैसे अपने आप ही हो गया। मास्टर्स करने के बाद घर के पास ही एक कान्वेन्ट था, वहीं शिक्षिका के रूप में अपने करीयर की शुरुआत की। थोडे दिनों में ही पता चल गया कि बस यही मेरा करीयर होना चाहिये. पढाने में जो सुख मिलता था और विद्यार्थियों से जो प्यार मिला, उसी ने मेरे इस करीयर को संजीदगी से लेने पर मजबूर कर दिया। कान्वेंट के नियम कठिन होते हैं और उस कान्वेन्ट के तो बहुत ही सख्त नियम थे। लडके और लडकियों की अलग अलग कक्षायें थीं। मुझे लडकियों की कक्षा में पढाने का मौका मिला था। लडकियों को पढाना मुझे हमेशा ही बहुत अच्छा लगता है। उन्हें पढ़ाने में अलग ही मज़ा था। हर काम समय पर होता था, होमवर्क वक्त पर, क्लास साफ़ सुथरा, सजा हुआ, यहां तक की बच्चों की फ़ी कलेक्शन में भी क्लास की मानिटर मेरी सहायता करती थी। एक बार निर्देशन दे दिये गये तो फिर बार बार कहने की ज़रूरत ही नहीं। डाँटने की तो ज़रूरत कभी पडी ही नहीं। उस कान्वेंट में ४ नन थीं जो कि ग्यारहवीं में पढती थीं। गर्मी की छुट्टियों में काम्वेन्ट के अन्दर जा कर उन्हें पढाया। साफ़ सुथरा कान्वेंट। ये नन लडकियां बहुत सुबह सुबह उठ जाती थीं और इनमें से एक तो पढाई में बहुत ही तेज़ दिमाग़ थी।

तो खैर सुख से दिन बीत रहे थे जब मेरे पिताजी ने कलकत्ता चले जाने का निर्णय लिया। कलकता जा कर वहाँ सेंट जोसेफ्स कान्वेंट में नौकरी मिल गयी और ये तो लडकियों का ही कान्वेंट था। जैसा मैंने कहा लडकियों से डील करना बहुत आसान लगता है मुझे। मगर यहाँ ज़्यादा दिन नहीं नौकरी कर पाई मैं, बी.एड करने के लिये कालेज में दाखिला ले लिया था। बडी ही भाव-भीनी विदाई हुई, नाना तोहफ़े, कार्ड आदि जैसा कि पिछली स्कूल में भी हुआ था। वैसे रोज़ ही कुछ फूल और कभी कोई कार्ड मिल जाया करते थे, बिना किसी कारण के भी। तो मेरी बी.एड की पढाई पूरी हुई और शादी के बाद अपने देश को छोडना पडा। नये देश में भारतीय मूल के एक नामी विद्यालय में पढाने का अवसर मिला। इस स्कूल में भी लडकों और लडकियों की अलग कक्षायें थीं। और इस बार मुझे दिया गया लडकों को पढाने का भार।

वाह, नये देश में नयी नयी नौकरी...क्या बात है। दिल खुशी से फूला नहीं समा रहा था, यहाँ भी अपने ही लोग, अपने ही देश के बच्चे। तो हम कक्षा छठवीं के क्लासरूम शिक्षिका हुये और आठवीं तक लडकों को साइंस पढाने के लिये नियुक्त किये गये। बडे ही कान्फ़िडेन्स के साथ अपनी ज़िम्मेदारी शुरु की पर... ज़ोर का झटका धीरे से लगने का मतलब तब जा कर समझ आया जब कुछ ही दिनों में लडके हमारे सर के ऊपर सवार हो कर यथार्थ मॆं नाचने लगे। क्लास में ऊँची आवाज़ में भी बोलना पडता है, तब समझ आया। बाप रे! ये लडके, न तो होमवर्क सही वक्त पर होता था, न ही कोई हमारे प्रश्नों का उत्तर तैयार करके लाता था। डाँटने की ज़रूरत लडकियों को कभी नहीं पडी, यहाँ तो क्या करें समझ ही नहीं आया। मैं रोज़ परेशान और स्कूल के प्रिन्सिपल को कहती रही मुझे लडकियों का डिपार्ट्मेंट दिया जाये। मगर वो भी कह देते " डोंट वरी, यू कैन डू इट."

और इस तरह रोते पीटते एक साल गुज़र गये। एक साल बाद बडी आशा थी कि शायद लडकियों को पढाने का मौका मिले, मगर नहीं प्रिन्सिपल को मुझ पर रहम नहीं आया। मेरे सीधे सुंदर बाल एक साल में घुंघरालू बन चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे लडकों को ही पढाने को कहा। तो हमने भी कमर कस ली अब। इस साल मुझे बिल्कुल पता था कि लडकों को कैसे पढाया जाता है। जो बी.एड में नहीं सिखाया गया था, इस एक साल ने सिखा दिया। लडकों के साथ सख्त रहना पडता है, कोई ढील दी नहीं कि वो अपने काम में ढील देंगे। आज जो पढाया, रोज़ नियम से सवाल पूछना, और अगर नहीं पढाई की है, होमवर्क नहीं किया है तो सज़ा भी देना( उनका सबसे प्रिय कार्य, जो कि लडकों के लिये ब्रेक में बाहर जाकर खेलना होता है, पर पाबंदी लगा दी जाये, उस वक्त वो अपना काम पूरा करेंगे, या सवालों के जवाब तैयार करेंगे, क्या करें अच्छा तो नहीं लगता पर ये नहीं किया तो कभी कोई काम पूरा नहीं होगा)। सही काम करने पर सिर्फ़ एक छोटी सी शाबाशी बहुत बडा काम कर जाती है। लडके दिल के बहुत साफ़ होते हैं। मुझे कभी भी कोई फूल या कार्ड नहीं मिला लडकों को पढाने के इस काल में मगर, सम्मान आँखों मॆं झलकता था। उस स्कूल को छोडते वक्त मुझे इतना बुरा लगा जितना पहले कभी नहीं लगा था। मुझे कोई तोहफ़ा तो नहीं मगर पेपर पर लिखे कुछ अल्फ़ाज़ मिले " मैडम यू चेन्ज्ड माइ लाइफ़" । तीन साल में वो बच्चे और बडे हो गये होंगे मगर मेरे पढाने की फिलोसोफी को बदलने में उनका बडा हाथ रहा। " पोसिटिव मोटिवशन" काम करता है, सिद्ध हो गया, और लडकियों और लडकों के साथ बिल्कुल अलग व्यवहार करना पडता है, इस बात का अनुभव हुआ। लडकियाँ भावुक होती हैं, उन्हें अपने सम्मान-अपमान आदि की परवाह होती है और लडके...ह्म्म्म... मगर दिल के बिल्कुल साफ़, जो दिखता है वही मिलता है वाली कहावत पर खरे उतरते। भावनाओं के प्रदर्शन में बिल्कुल ही शून्य और दोस्तों के साथ हाथापाई को हर वक्त तैयार, मगर दरअसल नेक।

अब सोचिये क्या, यहाँ आने के बाद को-एड यानि कि लडके-लडकियों को एक साथ पढाने का मौका मिला। उसके अलग अनुभव...

9 comments:

Tarun said...

अब तक तो आप को दोनों में मास्‍टरी हो गई है कि फर्क पढ़ता है अब सिर्फ लड़के या सिर्फ लड़की या फिर दोनों।

Ashish Shrivastava said...

पढाना एक मजेदार कार्य है, काफी आंनद आता है. एक आत्मसंतुष्टी मिलती है.

RC Mishra said...

ज़रा सा.....?
ढेर सारा !
पढ के मुझे तो यही लगा!

अनूप शुक्ल said...

बड़ा अच्छा तथा बडा़ लेख लिखा है। बधाई।

amit said...

लडके दिल के बहुत साफ़ होते हैं। मुझे कभी भी कोई फूल या कार्ड नहीं मिला लडकों को पढाने के इस काल में मगर, सम्मान आँखों मॆं झलकता था।
सही कहा मानसी जी। लड़के आमतौर पर दिखावे में विश्वास नहीं रखते, और यह तो विश्व प्रसिद्ध है कि किसी लड़की के दिल की बात जानना तो कदाचित् ईश्वर के लिए भी संभव नहीं। ;)

जब मैंने पढ़ना शुरू किया और लड़कियों की प्रशंसा पढ़ी, तो मुझे लगा कि आपने भी "लड़कियाँ सीधी और अच्छी, लड़के शैतान और नालायक" किस्म का लेख लिख दिया है, पर पूरा पढ़ने के बाद ऐसा न लगा। :)

आपने तो मुझे मेरे स्कूल की याद दिला दी। बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को हम सम्मान की नज़रों से नहीं देखते। ऐसा ही अध्यापकों और अध्यापिकाओं पर भी लागू होता है। मैं कुल दो स्कूलों और एक कालेज में कई शिक्षकों से पढ़ा हूँ और केवल तीन अध्यापिकाओं और दो अध्यापकों का ही हृदय से सम्मान किया है और आज भी करता हूँ, शायद इसलिए क्योंकि मुझे मेरे रूप में ढालने में इनका बहुत योगदान रहा है। आमतौर पर हर शिक्षक के कुछ पसंदीदा विद्यार्थी होते हैं जिन पर उनकी कृपा औरों से अधिक होती है, पर इन पाँच शिक्षकों में से एक अध्यापिका के सिवाय बाकी किसी का मैं चहेता विद्यार्थी न था परन्तु दूसरे विद्यार्थियों की तुलना में इन सभी से मैं डाँट अधिक खाता था क्योंकि मैं बचपन से ही लापरवाह रहा हूँ। तो मैंने यही महसूस किया कि वे सभी जानते थे कि मैं बेहतर कर सकता हूँ यदि लापरवाही छोड़ दूँ और इसलिए वे मेरे साथ अधिक सख्ती से पेश आते थे, बस यही बात उनकी मुझे अंदर तक छू गई। :)

Sunil Deepak said...

वाह मानसी जी, आप के लेख ने तो "टू सर विद लव" की याद दिला दी. मेरा विचार है कि पश्चिम संस्कृति में शिक्षकों के लिए "बिना कमायी" हुआ सम्मान नहीं होता, उसे अर्जित करना पड़ता है, और उसे अर्जित न कर पायें तो लड़के हों या लड़कियाँ, दोनो को ही पढ़ाना कठिन है. मुझे एक बार उत्तरी इटली में एक हाई स्कूल में लड़ियों को भारत के बारे में बताने के लिए बुलाया गया था, पर उन लड़कियों में मुझे ऐसा छटी का दूध पिलाया कि तब से मुझे स्कूल में जाने का नाम सुन कर ही पसीना आ जाता है. :-)
सुनील

मसिजीवी said...

मानसी बधाई खूबसूरत पोस्‍ट

लड़कों को पढ़ाया है, लड़कियों को भी। को एड में भी पढ़ाया और पढ़ा रहा हूँ। तुम्‍हारी कुछ बातों की तस्‍दीक कर सकता हूँ और कुछ ऐीा हैं जो केवल 'मानसी का सच' है। मसलन बी एड से हुई तैयारी। पता नहीं कोलकाता के विषय में पर यहॉं दिल्‍ली का केन्‍द्रीय शिक्षा संस्‍थान मुझे याद है कॉफी समर्थ था इन आने वाली कठिनाइयों से निपटने के औजार थमाने में।

लड़के बनाम लड़की कुछ ज्‍यादा समान्‍यीकरण कर दिया आपने पर सच से ज्‍यादा दूर नहीं हैं आप। पर मैं कम से कम दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की उन मित्रों से हमदर्दी जताता रहता हूँ जो 'बेचारी' लड़कियों के कॉलेजों में पढ़ाती हैं उनहें मिलता है समय पर काम, साफ सफाई,लेकिन निर्मम आलोचनात्‍मक दृष्टि व लोकतंत्रात्‍मकता का घोर अभाव। विद्यार्थियों में भी और सहयोगिनियों में भी।

अपनी विद्यार्थियों के बीच मैं अक्‍सर इसलिए अजीब समझा जाता हूँ क्‍योंकि मैं बहुत साफ सुथरे व्‍यवस्थित ऐसाइनमेंट पसंद नहीं करता ज्‍यादा सजे को तो वापिस ही कर देता हूँ।

फूल अच्‍छा महकते हैं कार्ड भी जँचते हैं पर सबसे प्‍यारी होती हैं उत्‍साह से चमकती ऑंखें और आक्रोश।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

आप सब का धन्यवाद। मसीजीवि के संदेह को दूर करना चाहूँगी। बी.एड. तो बहुत कुछ ही सिखाता है और मैं खुद मानती हूँ कि प्रफ़ेशनल ट्रेनिंग के बाद मेरे पढा़ने के तरीके में, उन नाना बारीकियों को, तकनीकी बातों को, बच्चों के मनोविज्ञान को आदि जानने के बाद पढ़ाना या मेरे बच्चों से डील करने के तरीक़े में फ़र्क पड़ा, मगर, अनुभव जो सिखाता है, वो कभी कोई करिकुलम नहीं सिखा सकता। ये सिर्फ़ शिक्षा जगत में नहीं बलिक हर फ़ील्ड की बात कर रही हूँ मैं। और सर, "बिचारी" लडकियाँ कहना भी ठीक नहीं, सबको पढाने का अलग मज़ा है। लडकों को पढाने में मुझे बहुत मज़ा आया (अगर आपने लेख पूरा पढा है तो) उसी तरह लडकियों को पढाने में अलग आनंद आया।

मसिजीवी said...

न न न लड़कियॉं बेचारी नहीं कही गई हैं। देखिए न ध्‍यान से, मेरी वे मित्र 'बेचारी' कही गई हैं जो लड़कियों के कॉलेज में पढ़ाती हैं। यूँ भी बेचारी इन्‍वर्टेड कॉमा में था :)