कुछ साल पहले, जब मैं एक स्कूल विशेष में पढा रही थी, वहाँ के नियमानुसार बच्चों के माता-पिता से मुलाकात (पेरेंट-टीचर मीटिंग) से पहले हमेशा स्टाफ़ की एक मीटिंग बुलायी जाती थी। वहाँ हमारे से कहा जाता था, कि बच्चों की शिकायत करनी हो माता-पिता से तो 'लैदर बिफ़ोर यू शेव' का सिद्धांत अपनाया जाये। अर्थात अगर बच्चे की कोई विशेष खराब बात माता-पिता को बतानी हो, जिसे हमारे लिये उन्हें बताना ज़रूरी है, (चाहे वो कोई व्यवहारिक समस्या हो या पढ़ाई लिखाई से संबंधित) तो उसे बताने से पहले बच्चे के अच्छे गुणों की तारीफ़ करें। इस बात का बहुत सही फल मिलता था हमेशा। मगर वहीं कुछ अध्यापकों को ये भी कहते सुना था कि जो है सो है, माता-पिता को इतना समझदार तो होना ही चाहिये,कि अपने बच्चों में सही और गलत की पहचान कर सकें। कई बार बहुत से माता-पिता को शिक्षकों से नाराज़ हो कर जाते भी देखा है, और बवाल खडे होते भी। इस सब में चाहे स्प्ष्टव्क्ता भले ही कह लें कि सच तो सच रहता है, उसे कैसे भी कहा जाये, मुझे लगता है कि बात कहने के कई तरीके हो सकते हैं। ज़रूरी नहीं कि किसी बुरी बात को उतने ही बुरे तरीके से कहा जाये, मगर वहीं सच को छुपाया भी न जाये। एक किताब पढी थी बहुत पहले,( जो बिल्कुल पसंद नहीं आयी थी), डेल कारनेगी की " हाउ टू विन फ़्रेंड्स ऐंड इन्फ़्लुएंस पीपल" जिसमें हर बात पर हमेशा लोगों की पसंद का खयाल रखने की बात कही गयी थी, जो ऐसे अभी सुनने में सही लग रही होगी मगर उस किताब को पढ़ कर मैंने उस वक्त निष्कर्ष निकाला था -मक्खनबाज़ी करने से सब खुश रहेंगे। मगर एक बात जो बहुत सही लगी थी उस किताब की, अब तक याद है- अगर आप बास हैं तो अपने सबार्डिनेट को सब के सामने अपनी इज़्ज़त बचाने का मौका दीजिये। अलग से डाँटिये, मगर सबके सामने कभी नहीं।
सबको तो खैर कभी भी खुश नहीं किया जा सकता मगर शायद इन छोटी छोटी बातों पर ध्यान दे कर लोगों का दिल दुखाने से बचा जा सकता है।
5 comments:
मख्खनबाजी पर, एक और किताब 'You're Too Kind - a brief history of flattery' by Richard Stengel के बारे में सकेंत करना चहूगां| यह किताब मख्खनबाजी पर एक शोधकार्य है| यह किताब पढने योग्य है, खास तरह से अन्त के पेज जो बताते हैं कि मख्खन कैसे लगाना चाहिये तथा यदि कोई मख्खन लगा रहा हो तो उसे किसे स्वीकार करना चाहिये|
आपने बिल्कुल सही कहा कि तारीफ़ करने के बाद ही कमी इंगित करनी चाहिए। यह मानवीय स्वभाव है कि आलोचना हमेशा बुरी लगती है, चाहे वह भले के लिए ही क्यों न हो। आलोचना का सकारात्मक प्रतिफल पाने के लिए पहले प्रशंसा करना काफ़ी व्यावहारिक तरीक़ा है।
और सही कहा है तारीफ और कमी के क्रम के बारे में आपने, वैसे क्या ये पूछा जा सकता है - आप पहले अच्छी खबर सुनना पसंद करेंगे या बुरी।
लोगों को खुश रखना है तो उनका ईगो सहलाना पढ़ता है और इस ईगो को सहलाने को ही मक्खनबाजी कहते हैं, आजकल ईगो सहलाने वाले लोग बहुतायत से पाये जाते हैं।
जैसे, पोथी पढ़ पढ़ जग ...पंडित भया ना कोई कहते हैं उसी तरह से डेल कारनेगी पढ़कर भी अभी तक किसी का ईगो सहलाना नही सीख पाये।
'लैदर बिफोर यू शेव 'का अंदाज बिना दाढ़ी वाली महिलाओं को पूरी तरह समझ में नहीं आयेगा। फिर कहा भी गया है - निंदक नियरे राखिये। लेकिन कहा तो यह भी गया है-सच बोलो,प्रिय बोलो लेकिन अप्रिय सच मत बोलो।
वाकई असरदार युक्ति है ये !:)
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