Tuesday, November 28, 2006

संगीत का सफ़र

हमेशा लिखना नहीं हो पाता। संगीत मेरा प्रिय ब्लाग है। उसे लिखने में बहुत वक्त भी लगता है मगर लिख कर लगता है कि संगीत की कुछ सेवा तो हुई।

संगीत सीखना मेरी मां ने शुरु करवाया था मुझे। शौक तो था मुझे संगीत का, मगर सीखने जाना, रोज़ टीचर के पास...किस बच्चे को पसंद होगा। तब मैं ७-८ साल की थी जब संगीत की शिक्षा शुरु हुई। श्रीमती जयश्री चक्रवर्ती से। वहाँ वैसे सप्ताह में २ बार ही जाना होता था। मैं जाती थी भैया के साथ, साइकिल पर। और हर बार जाकर वही वही अलंकार, एक जैसा, अभ्यास करो, अभ्यास से ही गले में स्वर बैठेगा..उंहु..। मुझे लगता कि अब तो कोई गाना सीखूँ, भजन आदि। पर नहीं वो मुझे वही सा, रे, ग, की प्रक्टीस...तो खै़र...दो साल मैं उनसे सीखती रही और दो साल बाद उनका तबादला हो गया। मुझे लगा चलो संगीत सीखने से छुटकारा मिला, मगर नहीं, मेरी मम्मी भी...उन्होंने इस बार श्रीमती विमल सोनी के पास भेजा।

हम सब उन्हें सोनी आंटी कहते थे। उनके पास बहुत से बच्चे सीखने आते थे और वो तो रोज़ क्लास लेती थी। उस ज़माने में (८० के दशक में) वो सिर्फ़ २५ रुपये महीने के अपनी दक्षिणा लेती थी। उनका घर पास था। कभी कभी तो मैं उनके पास सीखने दिनों तक नहीं जाती थी। और तो और सोनी आंटी तो परीक्षा भी दिलवाती थी। बकायदा थेओरी, प्राक्टीकल। आंटी जगह जगह प्रतियोगिताओं में ले कर जातीं और मैं कभी सेकंड तो कभी फ़र्स्ट आती। तब बड़ा अच्छा लगता। दसवीं में पहुंची तो एक बहाना मिला। मम्मी से कहा, मम्मी इतनी पढ़ाई है, मैं संगीत बाद में सीख लूँगी। पर नहीं मेरी मम्मी ऐसे मानने वालों में से नहीं थीं। कहा- बस एक और साल में विशारद हो जायेगा, तब चाहे तो आगे मत सीखना अभी। तो फिर विशारद करना पड़ा। और बस... अजीब सा बदलाव महसूस किया मैंने।

जैसे ही इन परीक्षाओं के बंधनों से ऊपर उठी मैं, सब कुछ बदल गया। शायद अब उम्र भी समझने वाली हो रही थी। जैसे खुद ही संगीत में रुचि होने लगी। आकाशवाणी से गज़ल गाने का मौका मिला। कुछ साल आकाशवाणी से गाती रही। फिर अपने यूनिवर्सिटी को राज्य स्तर पर रेप्रेज़ेन्ट किया। अख़बारों में तस्वीरें आयी। तब लगता था, कि बहुत बड़ा काम कर रही हूँ। पर आज संगीत का अलग अर्थ समझ आता है। चाहे खुशी हो या मन उदास संगीत आपको इन सबसे परे ले जाता है, आप भगवान को मानें या न मानें पर ये आपको आध्यात्म तक पहुँचाता है। कहीं दूर अगर राग भैरवी में आलाप हो रहा हो तो जैसे दुनिया कहीं और छूट जाती है। संगीत के इस गहरे जादू को मैं कहाँ समझ पाती जो मम्मी ने ज़बरदस्ती मुझे संगीत न सिखलाया होता तो? मैं हमेशा आभारी रहूँगी उनकी कि उनके कारण मैं संगीत को कुछ हद तक समझ पाई हूँ। अब तो संसार के नाना कामों में व्यस्त हो गयी हूँ, संगीत बस एक शौक तक ही सीमित रह गया है, इतना समय नहीं दे पाती मैं इसे, पर ये मेरा सबसे अच्छा साथी बन कर मेरा साथ निभा रहा है।

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

यह लेख पढ़कर अच्छा लगा. संगीत का जो ब्लाग बनाया था उसे जारी रखें. हम भी कुछ जानकारी पाते रहेंगे.

RC Mishra said...

'रेप्रेजेन्ट' से आपक आशय 'प्रतिनिधित्व' से हो सकता है।
लेख पर एक उड़ती नज़र डाली थी..संगीत ब्लॉग पर नयी प्रविष्टियों की प्रतीक्षा है।

Manish Kumar said...

सही कहा आपने ! संगीत में बड़ी शक्ति है और उसमे डूब कर मन स्बच्छ सा महसूस होने लगता हैँ ।