Wednesday, August 01, 2007

कुछ अपने मन की-2 -( छुट्टियाँ)

मुझे याद है, पिछले साल जब मैंने वैक्यूवर से अपनी बेरोज़गारी के आलम में शिकायत की थी, कि मैं सारे दिन सिर्फ़ खिड़की से बादलों को देख कर बोर चुकी हूँ, पता नहीं नौकरी कब लगेगी और मैं कब फिर बिज़ी हो पाऊँगी, तो कई बलागरों कहा था कि बाद में नौकरी मिलने पर जब वक्त नहीं मिलेगा आराम के लिये, तब मैं पछताऊँगी कि वो ज़माना कितना सुंदर था। पिछले सप्ताह मेरा कोर्स ख़त्म हुआ। उसके एक महीने पहले मेरी स्कूल की छुट्टियाँ तो शुरु हो चुकी थीं मगर अगले ही दिन ये कोर्स शुरु हो गया था। एक घंटे की रोज़ सुबह की ड्राइव ही थका देती थी। और फिर घर आते आते ३-३:३० हो ही जाते थे। तो एक महीने बाद आख़िरकार ये कोर्स खत्म हुआ और शुरु हुई मेरी असली छुट्टियाँ। बिल्कुल बचपन में जैसे गर्मी की छुट्टियाँ आने पर ख़ुशी होती थी, वही फिर महसूस हो रहा था। मुझे लगता है, किसी साइकोलोजी के चलते, पढ़ाई के खत्म होने की छुट्टियाँ ज़्यादा मीठी होती हैं, किसी भी और छुट्टी से। तीन दिन से घर पर आराम हो रहा है, पूरा आराम। दो दिन बाद घूमने जा रही हूँ, १५ दिन के लिये, जो घर में बैठने जैसा छुट्टी का मज़ा नहीं दे सकता। मेरी कलीग कहती है कि वो गर्मी की छुट्टियों में कहीं नहीं जाती, सिर्फ़ घर में अपने परिवार के साथ वक्त बिताती है। इसी में उसे असली छुट्टी का मज़ा मिलता है। पर एक बात कह सकती हूँ मैं, कि छुट्टी का अलग मज़ा है, बेशक़, मगर जब लंबे समय के लिये एक अन्सर्टेन ख़ाली वक्त से गुज़रना पड़ता है तो वो मज़ा नहीं देता। वो कहानी कितनी सच लगती है जिसमें एक मज़दूर सुख की नींद सोता है मगर धनाढ्य को सब होते हुये भी नींद न आने की बीमारी होती है। सच है, अंधेरे से जो न गुज़रा हो उसे रोशनी के महत्व का क्या पता।

4 comments:

रवि रतलामी said...

और ज्यादा मजा तब है जब घोर व्यस्तता के बीच एक पोस्ट लिख दी जाए.

:)

Anonymous said...

ऐसे ही होता है मानसी जी, जब व्यक्ति वेल्ला होता है तो सोचता है कि किस तरह व्यस्त हुआ जाए और जब व्यस्त हो जाता है तो सोचता है कि वो वेल्ले-पन वाले भी सुखद क्षण थे!! ;)

और ज्यादा मजा तब है जब घोर व्यस्तता के बीच एक पोस्ट लिख दी जाए.

हा हा हा! :)

अनूप शुक्ल said...

सही है। ऐसी ही लिखती रहे।

Udan Tashtari said...

बढ़िया है. मनाईये छुट्टियां. :)