ये जहाँ मेरा नहीं है
या कोई मुझसा नहीं है
मेरे अपने आइने में
अक्स क्यों मेरा नहीं है
उसकी रातें मेरे सपने
कोई भी सोता नहीं है
आँखों में कुछ भी नहीं फिर
नीर क्यों रुकता नहीं है
दिल है इस सीने में, तेरे
जैसे पत्थर सा नहीं है
देखते हो आदमी जो
उसका ये चेहरा नहीं है
एक भी ज़र्रा यहाँ पर
तेरा या मेरा नहीं है
6 comments:
बहुत बढिया लिखा है-
एक ढेला मिट्टी का भी
मेरा या तेरा नहीं है
मैं भला क्यों जाऊँ मंदिर
ग़म ने आ घेरा नहीं है
एक ढेला मिट्टी का भी
मेरा या तेरा नहीं है
bahut khoob......bahut badhiya....
अच्छी है गजल। लिखतीं रहें। इत्ते दिन में न लिखा करें। :)
हां जल्दी जल्दी लिखना चाहिये, जिससे हम लोग जल्दी जल्दी पढ़ सकें।
वाह! बहरे रमल सालिम मुरब्बा की बेहतरीन ग़ज़ल है जो मिसाल के तौर पर इस्तेमाल की जा सकती है। सारे ही अशा'र बहुत अच्छे लगे।
मेरे घर के आइने में
अक्स क्यों मेरा नहीं है
बहुत ही संवेदना है इस शेर में!
हाँ, एक शिकायत भी है कि इतनी अच्छी ग़ज़ल लिखती हो लेकिन रफ़तार कम है।
लिखती रहो।
महावीर शर्मा
गहरी मानवीय भावनाओं के साथ बहुत सुंदर कविता लिखी है !
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