आज फिर शाम हुई
और तुम नहीं आये
आसमां की लाल बिंदी
छूने चली भवें क्षितिज की
और कुछ झोंके हवा के
ढेरों भीगे पल ले आये
पर तुम नहीं आये
चल पड़ा ये मन अचानक
उसी पेड़ के नीचे से गुज़रा
कुछ सूखे पत्ते पड़े थे नीचे
और एक पहचानी खुश्बू आ लिपटी
वैसा ही एक पत्ता कबसे
मेरे सपनों के पास रखा है
कभी रेत की सूखी आँधी में
जाने क्यों मचल उठता है
उड़ता है गोल गोल और
उस खुश्बू से जा उलझता है
जैसे उलझा करते थे कभी
झूठी कहानियों पे हम भी
आज पत्ते क्यों चुपचाप पड़े हैं
कैसे उस खुश्बू को समझायें
शाम वही पर तुम नहीं आये
गुज़रा अभी मेरे पास से एक पल
हल्की सी दस्तक दे गया वो
गुनगुना रहा था वही धुन जिसपे
हम दोनों साथ चले थे कभी
कितने बेसुरे लगते थे तुम
मेरा सुर हँसता था तुम पर
आज भी वो ढुँढ रहा तुम्हें
अब कैसे उस सुर को समझायें
शाम हुई तुम क्यों नहीं आये...
(पुरानी एक कविता)
5 comments:
सुकुमार भावों की उतनी ही सुकुमार अभिव्यक्ति!
बधाई।
कितने बेसुरे लगते थे तुम
मेरा सुर हँसता था तुम पर
आज भी वो ढुँढ रहा तुम्हें
अब कैसे उस सुर को समझायें
शाम हुई तुम क्यों नहीं आये...
बधाई।
Aapki kavita bahut acchi lagi.
Ise padhkar mujhe kuch yaad aa gaya.
aasha hai aap aage bhi likhti rahengi.
वाह ! बहुत ही सुंदर रचना.सुकोमल भाव मर्म तक सीधे पहुँच जाते हैं.बहुत सुन्दरता से भावों को शब्दों में पिरोया है आपने.
सुकोमल भावनाओं से गुंथी सुंदर रचना
बधाई---
सुधा
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