
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
मेरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जानो ईमां हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
फ़िराक़ अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
(कुछ और शेर इसी ग़ज़ल के)
खु़द अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं
हमारी हर नज़र तुझसे नई सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैग़ाम लेते हैं
--फ़िराक़ गोरखपुरी
(आवाज़ जगजीत-चित्रा)
4 comments:
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
मेरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जानो ईमां हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
waah bahut badhiya
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
फिराक साहेब की इस ग़ज़ल का जवाब नहीं और इसे गाया भी क्या खूब है जगजीत चित्र जी ने...
नीरज
चलो फिर यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें
कम अज कम एक चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
( दुष्यंत)
यादें ताजा करने का धन्यवाद
Manoshiji
Hirdya se aabhar...
Gazal ke bol, sathe umdaa aawazz .. dono mikar ek chaap chd de te hai hirdya per...
parashar
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