Monday, April 06, 2009

मेरा न्यायाधीश- (अंतिम भाग)


(लेखिका:अचला दीप्ति कुमार)

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गतांक से आगे-

धीरे-धीरे वह साल बीत गया। डेविड अच्छे नंबरों से पास हुआ और उसे सामन्य तीसरे दर्जे में प्रवेश मिल गया। साल के अंत तक उसका व्यवहार काफ़ी सुधर गया था और उत्पात बहुत कम हो गया था। सत्र के अंत में मुझे फिर एक बार आफ़िस में बुलाया गया। इस बार प्रिंसिपल ने मेरे सामने एक नया प्रस्ताव रखा। " डेविड के व्यवहार में इतनी उन्नति होने के कारण हम लोग यह चाहते हैं कि अगले साल भी वो तुम्हारे साथ रहे। ऐसे बच्चों को यदि दो-तीन साल स्थिर वातावरण मिल जाये तो उनका व्यवहार भी संतुलित हो जाता है। तुम सोच कर देखो, यदि तुम्हें आपत्ति न होगी तो अगले साल तीसरी कक्षा में तुम ही उसे पढ़ाओगी। "

डेविड अक्सर ही अगले साल के बारे में अपने ढंग से चिंता किया करता था। शायद जीवन में पहली बार उसे स्थिरता का स्वाद मिला था। घर लौटने पर मां मिले न मिले, कक्षा के दरवाज़े पर मैं उसे अवश्य खड़ी मिलूँगी, इसका विश्वास उसे हो चला था। इस बार जब उसने " आइ वन्डर नेक्सट इयर..." से अपना वाक्य शुरु किया तो उसके कंधे पर हाथ रख कर मैंने उसे बताया कि अगर उसका काम व व्यवहार इसी तरह सुधरते रहे तो अगले साल वह तीसरी कक्षा में मेरे ही साथ रहेगा।

मेरी बात को सुन कर आई उसकी आँखों की चमक व मुख की मुस्कान को याद करके मेरा मन डूबने लगता है। जीवन में किये को अनकिया और कहे को अनकहा नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हो सकता तो सब से पहले मैं अपने इस वाक्य को अनकहा करती।

हर क्षेत्र की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी राजनीति और स्पर्धा चलती है। सत्र के अंत मे ये चीज़ें ज़ोर पकड़ती हैं क्योंकि उसी समय नये साल के लिये महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं। तीसरी कक्षाओं की तीनों अध्यापिकायें उस समय मिल जुल कर टीम-टीचिंग कर रहीं थीं। यह क्रम कई सालों से चल रहा था। स्वाभाविक ही था कि उस व्यवस्था में व्यवधान आने की आशंका से वे क्षुब्ध हुईं। संभवत: उससे भी बड़ा क्षोभ का कारण वह इंगित था जिसके द्वारा उनकी कठिन बच्चों को संभालने की योग्यता पर संदेह किया गया था। एक दिन तीनों ने आकर मुझसे अनुरोध किया कि तीसरी कक्षा को पढ़ाने का अपना निर्णय मैं बदल दूँ। उनका विश्वास था कि डेविड का व्यवहार इतना सुधर गया है कि तीसरी कक्षा में उसे संभालना कठिन न होगा। " फिर हर साल बच्चों की परिपक्वता में वृद्धि होती ही है, डेविड इस नियम का अपवाद तो नहीं होगा", उन्होंने कहा। अपने ढंग से मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की- डेविड का सारा जीवन ही नियमों का अपवाद रहा है तो उससे भिन्न होने की ही अपेक्षा होनी चाहिये, वह अभी भी सामान्य नहीं हो सका है। किंतु सक्षेप में यह कि मैं उन्हें अपना दृष्टिकोण नहीं समझा सकी। " इसीलिये हम लोग तुम से कह रहे हैं, प्रिंसिपल तो सुनेंगे नहीं", उन्होंने उपालम्भ भरे स्वर में कहा।

कुछ समय सोचने के बाद मैंने प्रिंसिपल को अपना निर्णय बता दिया, " नई कक्षा पढ़ाने में बहुत तैयारी और मेहनत करनी होती है। डेविड तो अब बहुत सुधर गया है। उसे यूँ ही तीसरी कक्षा में जाने दीजिये। मैं दूसरी कक्षा ही पढ़ाउँगी। "

मेरी बात सुन कर वे क्षुब्ध और चकित हुये। बीस साल से मैं उनके साथ काम कर रही थी। केवल मेहनत से बचने के लिये यह निर्णय लिया जा रहा है, इस पर उन्हें स्वभावत: विश्वास नहीं हुआ। पर समझाने की कुछ असफल कोशिशों के बाद उन्होंने मेरा निर्णय स्वीकार कर लिया।

आज, इतने वर्षों के बाद भी अक्सर मुड़ कर मैं जीवन के उस छोटे (?) से निर्णय को उलटती-पलटती हूँ। क्यों लिया मैंने उसे? झगड़े-झंझट से दूर रहने की अपनी प्रवृत्ति के कारण? ’प्राइमरी डिविशन’ में वैमनस्य की आशंका से? या मन में कहीं दबी-ढकी यह भावना थी कि ये लोग भी तो देखें कि डेविड को संभालना इतना आसान नहीं। कितनी मेहनत उसे सीधी राह पर लाने में लगी है, इसका कुछ अनुमान इन लोगों को भी तो हो। क्या वह मेरे अहं की आँधी थी जिसने अपने शोर में डेविड की कमज़ोर आवाज़ को दबा लिया था?

इस निर्णय को लेने के बाद मेरा मन बुझा-बुझा सा रहा। स्कूल के अंतिम दिन डेविड को पास बुला कर बड़े प्यार से मैंने उसे उसकी अगले साल की शिक्षिका का नाम बताया। विस्मित हो कर उसने अपनी प्रखर दृष्टि मुझ पर केंद्रित कर, अपने गंभीर स्वर में कहा, " बट यू प्रामिस्ड..."। कितने ही तर्क मैंने उसे देने के लिये सोच रखे थे, उसके उस अधूरे वाक्य ने उन्हें धुँधला कर दिया। उसने तो अपनी ओर से समझौते की हर शर्त निभाई थी। मेरी ओर से दिया हर कारण, हर तर्क उसके लिये बेमानी था। विदा कह कर वह धीरे-धीरे वहाँ से चला गया।

सितंबर की चहल-पहल आरंभ हुई। तीसरी कक्षायें स्कूल के दूसरे कोने में थीं अत: मुझे डेविड कम दिखा। धीरे-धीरे फिर उसका नाम स्टाफ़रूम में सुनाई देने लगा। धीमी गति से वह फिर अपने पुराने रूप में लौट रहा था। दो-तीन बार प्रिंसिपल उसे मेरे कमरे में भी लाये। जल्दी से पास का डेस्क ख़ाली करके मैंने उसे बिठाया। खोई-खोई उदासीन आँखों से वह चारों ओर देखता रहा। मैंने उससे बात करने की भी कोशिश की पर बहुत जल्दी मुझे प्रतीत हो गया कि स्नेह का वह तंत, जो मुझे उससे बाँधे था अब टूट गया है। अनजाने में ही सही, मैंने अपने आप को उन वयस्कों के गिरोह में शामिल कर लिया था जिन्होंने समय-समय पर उसे धोखा दिया था, उसके कोमल मन पर चोट पर चोट पहुँचाई थी।

कुछ दिनों बाद डेविड को ’बिहेवियर माडिफ़िकेशन क्लास’ में भेज दिया गया। वहाँ से वह वापस नहीं लौटा। वह कक्षा दूसरे स्कूल में थी इसलिये उसका कोई समाचार भी नहीं मिला। आज वह कहाँ है, कैसा है मुझे नहीं मालूम। डरती हूँ कि किसी दिन किसी अपराध के सिलसिले में बनी नामसूची में मुझे उसका नाम पढ़ने को न मिल जाये।

वह किसी का भी अपराधी क्यों न हो, आज यह स्वीकार करने में मुझे कोई दुविधा नहीं कि उसकी विश्वास भावना को ठेस पहुँचा कर मैंने उसके प्रति अक्षम्य अपराध किया है। इस मामले का निपटारा कौन करेगा, मैं नहीं जानती। किन्तु यदि यह कल्पना सच है कि अपने अपराधों का दंड हमें जीवनोपरांत भी मिलता है, तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरा न्यायाधीश डेविड ही बने, मेरी सज़ा का निर्णय वही ले। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे अपराध पर विचार करते समय भवें कुंचित कर, अपनी नीली आँखों की प्रखर दृष्टि को मुझ पर केंद्रित कर वह यही कहेगा," आइ विल जस्ट अक्सेप्ट अन अपालाजी, फ़्राम यू, मिसेज़ कुमार"।


--अचला दीप्ति कुमार

8 comments:

mehek said...

manoshi ji bahut hi marmik kahani thi,nishabd hun samapan padhke,socha tha jab kahani puri hogi bahut kuch keh dungi,magar kuch nahi keh paayi.sunder si kahani ke liye shukran.na jane man mein ek tis hai david kaisa hoga.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत दिनों बाद सुंदर रचना पढ़ने को मिली है जिस में संवेदना का स्तर इतना ऊँचा हो।

Sundeep Kumar tyagi said...

बड़ा ही मार्मिक उपसंहार किया है।प्रायश्चित्त स्वरूप ही सही आपने अपने अतर्मन के दर्पण की दिव्यदीप्ति से हमें भी आलोकित किया मानसी पटल पर यह संस्मरण अविस्मरणीय रहेगा।मानोशी जी को भी धन्यवाद माध्यम बनने के लिये!

दिगम्बर नासवा said...

बहूत ही मार्मिक कहानी............. अंत भी बहूत ही लाजवाब है.........पूरी कहानी में रोचकता बनी रही.....उत्सुकता बनी रही

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

मानोशी जी ,
वाकई बहुत संवेदनशील ,मन को झकझोर देने वाला संस्मरण .इसको पढ़कर साफ पता चलता है ...एक उद्दंड ..बिगडे बच्चे को सुधरने की कोशिश करने वाली अध्यापिका ..का प्रयास बेकार नहीं हुआ ..बच्चे में सुधार आ रहा था .शायद वह पूरी तरह सुधार भी जाता यदि अध्यापिका उसे आगे भी अपनी कक्षा में रखती ....अध्यापिका ने औरों के भरोसे डेविड को छोड़ दिया ..और इस बात का पश्चाताप भी उन्हें हुआ ...बहुत ही अच्छी बच्चों के मनोविज्ञान से जुडी कहानी /संस्मरण .
भाषा भी प्रवाहमयी ..पाठकों को बांधने वाली .अचला जी को मेरी तरफ से बधाई पहुंचाइएगा.
हेमंत कुमार

गौतम राजऋषि said...

अद्‍भुत गाथा......पूरा संस्मरण इतना बाँधे रहा किश्त-दर-किश्त
अचला जी की विलक्षण लेखनी और डेविड का चरित्र...
सलाम दोनों को और आपको शुक्रिया मानोशी इन दोनों से मिलवाने के लिये

अनूप भार्गव said...

इसे पढ कर लगता है कि हमारे वास्तविक जीवन में घटने वाली घटनाएं काल्पनिक कहानियों से कितनी ज़्यादा रोचक और शिक्षाप्रद हो सकती हैं ।
बहुत मार्मिक कहानी है और उसे सुनाया भी बहुत संवेदनशीलता के साथ है ।
धन्यवाद और अचला जी को प्रणाम कहें ।

पूनम श्रीवास्तव said...

मानोशी जी,
पहले भाग के बाद मैंने अचला जी का संस्मरण पढ़ तो पूरा लिया था पर नित्या का स्वास्थ्य गड़बड़ होने के कारण टिप्पणी आज लिख पा रही हूँ...दरअसल ये संस्मरण केवल संस्मरण मात्र नहीं एक अच्छी भावनात्मक कहानी है ...इसे पढने के बाद पता चलता है कि एक शिक्षिका को किन किन हालातों से रूबरू होना पड़ता है ...अचला जी को शुभकामनाएं इतना मर्मस्पर्शी लिखने के लिए ...आपको भी इसे पाठकों तक पहुंचाने के लिए .
पूनम